काळी रात अजै ढळी नीं

जागती जोत, मासिक, अगस्त, 2013



 @ Dr. Krishna Jakhar डॉ. कृष्णा जाखड़


सदियां सूं मिनख सिरजण में लाग्यौ थकौ है। वीं में साहित्य सिरजण ई अेक हिस्सौ रैयौ। साहित्य सूं आखी मिनखाजूंण रै ग्यांन में बधेपौ हुवतौ रैयौ है। किणी भासा अर छेतर विसेस में रचेड़ै साहित्य सूं वठै री संस्कृति, रीति-रिवाज, खानपान, गैणां-गाठां, गाभा-लत्ता अर वठै रै मिनख री चेतना रौ खुलासौ हुवै। किणी प्रांतीय भासा में रचेड़ौ साहित्य वठै रै छेतर अर मिनख सारू बेसी महतावू हुवै। मिनख नै आपरी जड़ां सूं जोड़नै अर वींरी चेतना नै प्रगतिशील बणावणै रा दोनूं कांम साहित्य अेकै साथै करै। जैविक संबंधां रै साथै-साथै सामाजिक संरचना नै समझणै सारू साहित्य री महतावू भूमिका रैयी है। सामाजिक संरचना रै तांणै-बांणै सूं साहित्य प्रभावित रैयौ अर करîौ ई। मिनख साहित्य सिरजती वेळा अणजांणै में खुद रौ ई सिरजण करै अर आवणवाळी पीढियां सारू मारग बणावतौ चालै। पण औ मारग सै सारू अेकसार नीं हुया करै। किणी नै इणमें जीवण रौ सार मिलै तौ किणी नै जीवण री विसंगतियां वाळी अणमिट परम्परा।
साहित्य चायै किणी भासा, देस कै छेतर रौ हुवै, वीं मांय तात्कालिक थितियां रौ बणाव हुया करै। साहित्य फगत वौ ई नीं मानीजै जकौ लिख्यौ थकौ है। लिपि ग्यांन सूं अणजांण अर अणपढ मानखै रौ वौ ग्यांन जकौ मौखिक परम्परा सूं चाल्यौ आवै, साहित्य ई बाजै। चायै वौ बात, गीत, कै कैबतां रै मारफत रमतौ हुवै। आखौ साहित्य मिनख रै भावां नै परगटणै रौ जरियौ हुवै। मिनख हरमेस वौ ई परगट्यौ जकौ वीं भोग्यौ, जीयौ, देख्यौ अर सुण्यौ। कीं काल्पनिक मसालौ ई वीं मांय मिल्योड़ौ हुय सकै पण कोरी कल्पना री अभिव्यक्ति नीं हुय सकै। पछै ई कोरी कल्पनां रौ सिरजण ई केई ठौड़ निगै आ ई जावै। चायै वा परीलोक री विगत हुवै कै देवलोक री। 
मिनख नीं ठाह कद आपरै टूटतै धीजै नै साधणै सारू लोकां रौ सिरजण करîौ। अेक जाळ गूंथ्यौ अर वीं जाळ में खुद नै सुरक्षित महसूस करîौ। पण होळै-होळै वौ ई जाळ मिनख रै मन में भय भरतौ गयौ अर वींनै न्यारै-न्यारै खांचां में बांटतौ रैयौ। साहित्य मांय मिनख रौ औ भय नवी पैंतराबाजी ल्यायौ। इणी कारणै मिनख री सहज अभिव्यक्ति रौ माध्यम जकौ साहित्य हौ वीं में ई धड़ाबंदी हुवणै लागगी।
मानखै रै जिण धड़ै नै जीवण रा साधन सोरपाई सूं मिलै हा, वीं आपरी पीढियां रौ कब्जौ साचै करणै सारू साहित्य में न्यारा खांचा बणाया। मिनख रा न्यारा-न्यारा करम-धरम थरप्या। ऊंच-नीच बणाई अर वीं मांय काल्पनिक लोक रौ भय भरîौ। जिण मिनख नै बैठनै सोचणै री फुरसत नीं ही, वीं समाज अर साहित्य रै इण जाळ नै अंगेज लीन्हौ। मिनख बरगां मांय बंटतौ रैयौ, जात-धरम, ऊंच-नीच, अठै तांणी कै लिंग-भेद ई मिनख रै भय री ऊपज है। व्यक्तिगत भय सूं जामेड़ी सामाजिक खाई आजलग आखी दुनिया मांय बणी थकी है। आ खाई कदै बेसी ऊंडी हुवै तौ कदै कीं भर ई जावै। पण स्यात् सूंवी जमीन आज तांणी कठैई नीं बणी। चायै वा दुनिया री किसी ई कूंट क्यंू नीं हुवै। अेक मिनख रौ हक दूजै मिनख री झोळी में घलतौ रैयौ है। साहित्य इण हक नै बचावणै सारू जोर खायौ तौ इण हक नै चबावणै खातर ई जोर लगायौ। देववाणी में बोलणवाळै साहित्य मिनख रै अेक हिस्सै नै अछूत साबत करîौ। साहित्य देववाणी में हौ, देवलोक सूं अवतरîौ हौ, इण खातर वौ सगळां नै मंजूर हौ। भोळी जनता उण माथै थोड़ौ-बहोत विचार करîां बिनां ई आज तांणी वींरी लीक-लीक चालै। दुनिया री सगळी भासावां अर छेतर मांय मिनख नै गूंगौ बणायां राखणवाळौ अैड़ौ साहित्य सिरजीज्यौ पण आज वीं माथै फेरूं सोचीजण लागग्यौ। विग्यांन री नवी खोजां रै साथै-साथै मिनख सामाजिक संरचना रै वीं जाळ नै समझणै लागग्यौ अर वीं माथै नवा-नवा सवाल खड़îा करणै लागग्यौ। 
जद आखी दुनिया री भासावां रै साहित्य माथै फेरूं चिंतीज सकै तौ राजस्थानी रौ अखूट भंडार वींसूं बंचेड़ौ किंयां रैय सकै? देववाणी मानीजणवाळी संस्कृत रै खासी नैड़ै ऊभी राजस्थानी में आजलग दुनिया री बीजी भासावां सूं बेसी परम्परागत लीक माथै चालीजै। सामंती कथा, पात्र, चरित्र, परिवेश आज बीजी भासावां रै साहित्य में नामलेवणजोग ई नीं रैया है। पण वठैई राजस्थानी में सामंती सोच लगौलग चालै। जद तांणी इण पितृसत्तात्मक सामंती सोच सूं ऊपर नीं उठ्यौ जासी तद तांणी राजस्थानी साहित्य बीजी भासावां रै साहित्य बरौबर खड़îौ नीं हुय सकसी। नवी सोच नै अंगेजीजणौ कीं दौरौ हुवै अर बगत ई लागै पण वींरौ परिणाम चोखौ हुवै। 
आदिकाल अर मध्यकाल में राजस्थानी रौ साहित्य बीजी भासावां सूं बेसी लिख्यौ थकौ है। आज ई राजस्थानी में खासौ लिखीजै। पण किणी ई भासा रै साहित्य में फगत आ बात मायनौ नीं राखै कै कित्तौ लिखीजै। कित्तै रै साथै आ ई देखणी जरूरी हुवै कै के लिखीजै। राजस्थानी रै आदिकाल में अेक-दो रचनावां नै छोडनै बाकी सगळौ साहित्य सामंती सोच रै नैड़ै है। कीं धार्मिक साहित्य ई है, जकै में ई लगैटगै सामंती सोच रा दरसाव हुवै। मध्यकाल में कीं संत साहित्य है, जकै में आमजन आयौ है। मीरां रौ साहित्य ई संत साहित्य साथै ऊभौ है। पण बाकी लगैटगै सगळै साहित्य में सामंती मानसिकता री अभिव्यक्ति हुई है। घणी मोटी-मोटी पोथ्यां लिखीजी पण वां में अंहकारी राजावां रा जुद्ध, जुद्धां में भिड़ती सेना, कटता-पड़ता रुंड-मुंड, खून सूं भीजती धरती, हाथी-घोड़ां सूं चींथीजती बापड़ी जनता, सती हुवती धीवडि़यां, राजतखतां रा बदळता धणी अर वांरी कीरत बखाणता कवि। राजमहलां में रचीजता चक्रव्यूहां बिचाळै भोग-विलास में डूब्या सामंत अर दास-दासियां सूं भरîा दरबारां में हुवता व्यभिचार। नारी रै वस्तुरूपी फुटरापै रा चितरांम खेंचता कवियां री कलम कदै थमी नीं। भोग में मदीजेड़ा राजावां री भूख ई कदै नीं मिटी। 
अेक रचनाकार रौ के औ ई धरम बणै कै फगत चिलकती चीज नै उठावै अर संभाळनै राखै। अंधेरै में दबेड़ी-चींथेजेड़ी रुळती चीज नै के खुद रै हाल माथै छोड़ देवै? चिलकती चीज तौ सीसौ ई हुय सकै अर संभाळणियै रै गड ई सकै। अंधेरै में रुळती चीज मोती ई हुय सकै जकौ संभाळणियै नै अणूतौ सुख देय सकै। अठै रै रचनाकार चिलकतै ऊजास में बेसी हाथ घाल्यौ अर अंधेरी झूंपड़ी कांनी ध्यांन नीं दीन्हौ। वींरी भरपाई अजै तांणी नीं हुय सकी।
राजस्थानी में दलित-दमित, शोषित-वंचित अजै तांणी हांसियै माथै फेंकीजेड़ा है। साहित्य रै बीचै ऊभौ पितृसत्तात्मक सामंती बणाव अर अेक कूंणै कांनी सरकाइजेड़ी सतर प्रतिशत मिनखाजूंण। इण वंचित मिनखाजूंण नै अंवेरनै साहित्य रै पानां में ल्यावणौ जरूरी है। नीं तौ असंतुलन रौ विस्फोट अेक दिन घमरोळ मचा देयसी अर वीं दिन केंद्र में खड़îा मुट्ठी-अेक लोगां सूं विस्फोट रौ धमाकौ सहण नीं करीजसी।
समूचै वंचित तबकै माथै विचार करणौ अबखौ अर खासौ बडाळ कांम, पण हुवणजोग है। अैड़ै कांम में अेकल मिनख रै हाथपग मारणै सूं कोई सार नीं निसरसी। इणी खातर सगळै विसयां नै अेक साथै अंवेरणै री आफळ ओपती नीं मानीजसी। अेक लुगाई हुवणै रै नातै वींरौ पैलौ फरज बणै कै वा लुगाई रा पगलिया मंडावणै रा जतन साहित्य में करै। अेक दलित रौ फरज बणै कै वौ पैलपोत आपरी ओळखांण थरपणै री मनसा परगटै। जद खुद री पिछांण बण जासी तद दूजै नै पिछाणनै री खिमता मत्तौमत्त जांम जासी। 
बिंयां तौ सै सूं बेसी शोषण तौ लुगाई रौ ई हुयौ है। चायै वौ कुणसौ ई जुग रैयौ हुवै। कुणसौ ई धरम-जात-समाज कै खेतर-देस हुवै। लुगाई आपरी जीवण-जातरा में हरमेस ठगीजी। बीजा वंचित तबका तौ आपरै शोषण नै समझै पण लुगाई तौ अजै तांणी वींनै समझ्यौ ई नीं। लुगाई तौ अजै ई मांनै कै वींरौ जिम्मौ फगत मरद रौ हुकम मानणौ हुवै। मरद री सोरपाई सारू सगळा जतन करणां धरम हुवै।
राजस्थानी साहित्य में जे नारी रै पगलियां री ढंूढ करां तौ सै सूं पैलां आदू साहित्य री खोज करणी ठीक रैयसी। विद्वानां रै मुताबिक राजस्थानी रौ आदूकाल लगैटगै 11वीं सदी सूं मान्यौ जावै। इण काल में खास रूप सूं जैन कवियां अर चारण कवियां रौ साहित्य मिलै। साथै ई लौकिक परम्परा रौ साहित्य ई मोकळौ मिलै। जैन कवियां खासकर रास अर फागु रच्या। 
जैन कवियां रौ उद्देश्य धरम रौ प्रचार रैयौ। वां खासकर जैन धरम रै नांमी पुरखां री बिड़द बखावणै सारू ई रचाव करîौ। जे कठैई आमजन आयौ है तौ वौ नांमी पुरख री महानता साबत करणै सारू ई आयौ है। स्त्री रौ महतब तौ जैन काव्य में बिंयां ई कम रैयौ, क्यूंकै स्त्री री संगत कै दरसण मात्र सूं सिद्ध पुरख रै मोक्ष रौ मारग अवरुद्ध हुय सकै। फेर ई केई पोथ्यां में स्त्री रौ आवणौ जरूरी हौ। पुरख री हौड में वींनै ओछी साबत करणै सारू। ‘चंदनबाल रास’ में कवि आसगु भगवान महावीर रै प्रभाव सूं चंदनबाला नै फगत सती-सावतरी घोषित करी है। ‘जम्बूस्वामीरास’ कवि धर्म री रचना है। इण मांय जम्बूस्वामी ब्याव री पैली रातनै आपरी ‘आठ’ राणियां नै ‘प्रतिबोध’ दीन्हौ। उण महान पुरख आठ स्त्रियां रै साथै खेल करîौ अर राजस्थान रा विद्वान ई कथा नै बडी मार्मिक बताई। जम्बूस्वामी री महानता रा बखांण करै, ब्याव री रात भोग री ठौड़ वौ आपरी पत्नियां नै ग्यांन बांट्यौ। वठै औ नीं सोचीजौ कै वां पत्नियां रौ मन कांईं चावै हौ। जीवण कर्मशील कै कोरौ उपदेसू? जम्बूस्वामी अठै उपदेश देयनै खुद आजाद हुयग्या अर आठ स्त्रियां नै पितृसत्ता री बेडि़यां में बांधग्या। इणी भांत री रचना है- ‘नेमिनाथ बारहमासा’। उग्रसेन री बेटी राजमती सूं ब्याव करणै नेमिनाथ जावै अर उग्रसेन रै महलां में बंदी पसु-पंखेरुवां रौ किरळावणौ सुणनै साधु बण जावै। पसुबलि रौ विरोध करणै सारू नेमिनाथ संन्यास धारण कर लेवै पण पसुबलि रौ दैहिक रूप सूं विरोध नीं करै। वांरै जीव-जिनावरां रौ किराळवणौ समझ में आग्यौ पण राजमती रै हिड़दै मांय पळती पीड़ रौ हाकौ नीं सुणीजौ। नेमिनाथ विरक्त हुय जावै। दाझती राजमती साध्वी बण जावै। 
विरक्त नेमिनाथ री महानता बखाणीजती वेळा कवि राजमती री वीं पीड़ नै भूलग्यौ जकी ब्याव री वेदी सूं साध्वी बणनै तांणी वींरै स्वाभिमांन नै चालणीबेझ करती रैयी। जे बारात लेयनै आयेड़ौ वर पाछौ मुड़ जावै तौ अरमानां री डोली सजायां बैठी नारी माथै कांई बीतै, आ बात हरेक मां-बाप जांणै अर मैसूसै। अठै राजमती रौ टूटतौ खुदूसम्मान अर लाचारी रौ साध्वी मारग पाठक नै झकझोरनै जगावै।
‘राजशेखरसूरी’ रचना ‘नेमिनाथ फागु’ में राजमती रै सिणगार रौ खासै विस्तार सूं बखांण करîौ पण पूरै फागु मांय राजमती रै व्यक्तित्व रौ बणाव कठैई नीं उभरîौ। आं रचनावां नै पढनै इंयां लागै जांणै नारी तौ खाली डील हुवै। व्यक्तित्व नांम री तौ कोई चीज सूं वींरौ दूर-दूर तांणी रौ नातौ ई नीं हुवै।
जैन कवियां रौ उद्देश्य धरम प्रचार हौ अर इण वास्तै वांरै कथ्य नै दोख नीं दीरीजै। पण लौकिक विसयां नै रचना रौ माध्यम बणावती बगत स्त्री नै दोयम दरजै माथै राखणवाळी बात पचाइज नीं सकै। लोक में स्त्री व्यक्ति हुवै अर वींनै ई साहित्य में ल्यायनै वस्तु बणावणौ तो अेक साजस रौ हिस्सौ ई हुय सकै। ‘बीसलदेव रास’ री रचना करती बगत ‘नरपति नाल्ह’ अजमेर रै शासक रौ स्वाभिमान बचायनै राख्यौ पण राजमती रै स्वाभिमान नै तोड़नै खातर विरह री अतिशयता रौ जाळ बुण्यौ। विरह के नारी नै ई सतावै? पुरख नै प्रेम-हेत री जरुत नीं हुवै? पुरख री भावनावां नारी जैड़ी नीं हुवै पण नारी रै स्वाभिमान री रिच्छ्या तौ हुवणी ई चाइजै ही। सिणगार अर विरह री तड़प सूं अळगी के नारी री और कोई भावना कोनीं हुवै?
‘आसाइत’ री ‘हंसावली’ नै पुरखजात सूं नफरत ही। वीं नफरत रौ कोई तौ कारण रैयौ हुयसी? बिना कारण रै तौ टाबर रै मांय ई किणी भांत री भावना पैदा नीं हुवै। हंसावली री पुरख रै पेटै घृणा री भावना रौ कारण कवि कठैई नीं बतायौ पण नफरत नै प्यार में बदळनै री कहाणी ठीक विस्तार सूं समझाई। स्त्री रौ पुरख रै प्रति आसक्त हुवणौ कोई पाप नीं पण वा स्वाभिमांन सूं जीवणौ चावै अर अेक साहित्यकार रौ धरम बणै कै वौ आपरै पात्रां रै आत्मसम्मांन नै बणायौ राखै।
चारण कवियां राजस्थान री वीरता, शौर्य, स्वाभिमांन रा गीत तौ गाया पण नारी नै फगत अेक ई रूप में देखी अर वौ रूप हौ सती रूप, देवी रूप। पति जे जुद्ध में कांम आयौ तौ सती हुवणौ तय हौ ई अर दुसमण सूं जीत हुवती नीं दीखी तौ जौहर री ज्वाला त्यार ही। ‘शिवदास गाडण’ रचना ‘अचळदास खींची री वचनिका’ में जुद्ध रा रोमांचकारी दरसाव प्रस्तुत करîा, अचळदास री वीरता अर शौर्य रा चितरांम खेंच्या, राजपरिवार री स्त्रियां नै जौहर री धधकती ज्वाला में स्नान करवायौ। औ अग्नि-स्नान रौ दरसाव राजस्थानी विद्वानां नै भलांईं रोमांचकारी लागतौ हुवै पण हगीगत मांय तौ वौ मांणस री मौत रौ रोजणौ हौ। रोजणै रौ अेक दूहौ जकौ आज ई मंचां माथै बडा-बडा विद्वान सबूत भांत राखै-
जउहर जालणहारि अजइ जळई ताई ऊचरै।
हरि हरि हरि होई रह्यौ बिसन-बिसन तणि वारि।
इतियास मांय कीं ई हुयौ हुवै पण शिवदास गाडण जे वीरांगनावां नै धधकती आग में कुदावणै री ठौड़ वांरै हाथ में तलवार पकड़ाय देंवता तौ स्त्री री आत्मसगती री कीं जाग हुवती। जद मरणौ तय हौ तौ पछै कायरां री भांत आत्महत्या क्यूं? जद मरद लड़ता-लड़ता प्रांण दे सकै तौ स्त्री क्यूं नीं? जे अैड़ौ हुवतौ तौ राजस्थान में ई कोई लक्ष्मीबाई हुई हुवती, चेन्नमा राणी हुई हुवती। राजस्थान में ई कोई अैड़ी स्त्री हुई हुयसी पण हुय सकै कै वा इतियास रै सोनल पानां में नीं मंडी। हुय सकै कठैई वा मरदानां भेख में जुद्ध मांड्यौ हुवै। कै पछै मरदानां गुणां सूं वींनै ई मरद रूप दीरीजग्यौ हुवै। 
साहित्यकारां नै दीठ अैड़ी ई रैयी कै वां में सूं कुणई नारी री वीरता नै कदै नीं कूंती, बस्स वींरौ कंवळपणौ देख्यौ। अठै तांणी कै कवि ‘अचलदास खींची री वचनिका’ री सरूवात ई जुद्ध स्वामिनी महादेवी भैरवी री स्तुति सूं करै वौ ई कवि स्त्री नै चिरळावता थकां आग में कुदावै।
‘पृथ्वीराज रासौ’ अैतियासिक रूप सूं भरोसै जोग नीं मानीजै। वींरी कथा में चैहान राजा पृथ्वीराज रै जुद्ध रौ बरणाव अर केइ्र ब्यावां रौ बखांण हुयौ है। आखै ग्रंथ नै गोख्यां पाठक नै फगत मोटै रूप सूं जकी बातां ठाह लागै वै दो बातां है- अेक राजा रौ कांम ब्याव करणौ अर दूजौ कांम जुद्ध करणौ हुवै।
राज्य री जनता रा अैनांण समूचै आदिकाल रै साहित्य में नीं मिलै। आमजन, खेत-खळा, पसु-पंखेरू, घर-बार, गांव-गवाड़, टाबर-बूढा-बडेरा के कुणई नीं हुवता शासक री रियासत में? सामान्यजन रै बिना ई शासक रौ राज के महफूज रैवतौ? पण ‘पृथ्वीराज रासौ’ समेत केई ग्रंथ पढ्यां तौ इंयां ई लागै कै वठै फगत सामंत बरग ई बासींदा हा। दूजौ कुण ई नीं।
‘पृथ्वीराज रासौ’ काव्य हिंदू-मुसळमान संघर्ष री अमरकथा रै रूप में ओळखीजै। पण इण संघर्ष री वजह स्त्री रौ फुटरापौ मानीजै। के सांचाणी दो राजावां री लड़ाई बिचाळै नारी सौंदर्य ई हुवतौ? और कोई राजनीतिक कारण नीं हुवता? सत्ता हासल करणै री हूंस कांम नीं करती? विजय पताका फरकावणै रौ मद कांम नीं करतौ? खानदानी मद कै पीढियां तांणी रमती बदळै री भावना नीं हुवती जुद्धां बिचाळै? पण अै सगळी बातां आम आदमी री सोच सूं सदीव बारै रैयी। वींनै तौ बित्तौ ई दीख्यौ जित्तौ कवि दीखावणौ चायौ। संयोगिता हुवै चायै पद्मावती कै पछै राजावां रै हरमां मांय भेडां री ज्यूं भरेड़ी स्त्रियां। कुणई वांनै कदै बूझ्यौ कै वै कठै रैवणौ चावै? किणरै साथै रैवणौ चावै? सांस रोकू भींतां रै बिचाळै महलां रौ बैम पाळती रैवणी चावै कै पछै खुलै आभै में कुदरत रै नैड़ै? कुणई नीं समझी वांरी पीड़। कुणई नीं सुणी वांरी सिसकारी। क्यूंकै वै तौ फगत अेक वस्तु ही, व्यक्ति नीं। व्यक्ति तौ वै हा जका तलवार रा धणी हा, जका स्त्री नै चेतौ करावता रैवता कै थूं तद तांणी ई महफूज है जद तांणी म्हारै हाथ मांय तलवार है, जद तांणी थूं म्हारी छतर-छींयां में है। जिण दिन म्हारै रिच्छ्या घेरै सूं बारै गई वीं दिन आफत थन्नै साबत गिट जासी। 
आज ई इतियास री बात आवता ई कोई सामान्य आदमी कै विद्वान आ ई कैवै के जित्ता ई जुद्ध हुया है उणरै मूळ कारण में स्त्री रैयी। चायै वै द्वापर-त्रेता जुग में हुया हुवै कै रियासतकाल रै सामंती बगत में। स्त्री जकी संवेदना रौ भंडार हुवै, ममता रौ सबूत हुवै, पीड़ नै मूंन रैयनै पीवणै में भरोसौ राखै, वीं स्त्री नै जुद्ध री विभीषिका रौ कारण साबत कर दीन्हौ, फगत पुरख सत्ता रै जाळसाजां।
पृथ्वीराज अर मुहम्मद गौरी रै जुद्ध लारै केई कारण कांम करै हा अेकै साथै। वौ जुद्ध आखै भारत रौ भविख चांकै हौ। आपसी रीस अर बदळै री भावना में सिलगतै सामंतां री ओछी मानसिकता रौ परिणाम हौ वौ जुद्ध। पण भुगत्यौ भोळी जनता, पृथ्वीराज रै राणीवास में भरेड़ी हजारूं स्त्रियां अर आवणवाळै बगत।
आदिकाल में अेक ‘राउल वेल’ पोथी मिलै। जकी रौ रचनकार कवि रोड मान्यौ जावै। आ पूरी री पूरी वेल कुल चूरि वंस रै सामंत री स्त्रियां रै रूप नै लेयनै रचीजेड़ी पोथी है। नख-शिख बरणाव सूं अळगी इण पोथी में कीं ई बात नीं मिलै। राजपरिवारां रै आसरै रैवणवाळै आं कवियां री मजबूरी ही कै कुबाण ठाह नीं पण इणांनै पढ्यां लागै जांणै वीं बगत वस्तु-सौंदर्य सूं अळगौ कीं नीं हुवतौ। मिनखपणै री जरुत ई नीं हुवती कै पछै वौ मिलतौ ई नीं। ‘बसंत विलास फागु’ ई लौकिक काव्य शैली में लिखी थकी रचना है। इण पोथी रै 89 पदां में बसंत रुत री मादकता में सिणगार रा संजोग-विजोग चितरांम रचीजेड़ा है। विजोग में स्त्री री हळगत रौ दरसाव करतौ पद-
इणि परि कोइलि कूजई, पूजई युवति मणोर।
विधुर वियोगिनी धूजई, कूजइ मयण किसोर।।
प्रिय रै विजोग में मरणनैड़ै हुयोड़ी स्त्री रै के और कीं कांम नीं हुवतौ? स्त्री रौ दुनिया मांय अेक ई रूप हुवै कांईं? प्रिया सूं अळगा ई वींरा बहोत-सा रूप हुवै, जिणमें वा भैण, बेटी, मां, सखी, सहचरी, मानवी नीं जांणै कित्तै रूपां में साम्हीं आवै। पण आदिकाल रै कवि नै फगत वा अेक ई रूप में रीझावै। जे नारी फगत प्रेयसी बणनै झूरती रैवती तौ स्यात् कवि री कल्पना रौ औ संसार इत्तौ फूटरौ नीं हुवतौ। इण संसार री सुंदरता तौ उणरै मानवी रूप रै कारण ई हुवै, जकै नै राजस्थानी रै आदिकालीन कवि कदै नीं देख्यौ। आ नीं कैय सकां के प्रेयसी रूप में देखणौ कवि रौ ध्येय हुवतौ, आ वींरी मजबूरी ई हुय सकै पण आपां तौ वौ ई देखां-समझां जका रचाव में है। वीं बगत जे स्त्री रै मानवी रूप माथै कलम चलाइजती तौ आज राजस्थान री स्त्री पड़दै मांय घुटनै मूंन रैवती थकी पीड़ रा घूंट नीं भरती। आज वा पुरख साथै बरौबर रा पांवडा धरनै खुदूसम्मांन री ऊंचाइयां नापती। वीं बगत दिखायड़ै मारग माथै डग भरणा आज री स्त्री सारू सौरा हुवता। 
वीं बगत रै खूट्योड़ै स्वाभिमांन नै अंवेरणै खातर आज री स्त्री नै घर अर बारै दोनूं मोरचां माथै अेक साथै जूझणौ पड़ै। चारदीवारी सूं बारै खुलै वातावरण मांय खुदूसम्मांन रै साथै महफूज रैवणै नै जीवण कैयीजै। अैड़ै ई जीवण री चावणा में प्रेयसी रौ मिथक तोड़नै व्यक्ति रूप में आज री स्त्री नै आवणौ पड़सी। आदिकाल सूं दमघुटतै राजमहलां री सोच बिचाळै पळती स्त्री नै चींत बदळनी पड़सी। सिणगार अर देह रै दायरै सूं बारै आवणौ पड़सी। जौहर री राख सूं बारै अर इतियास री खोह सूं दूर आवणौ पड़सी। मुगती रौ मारग सतीत्व में नीं खुदूसम्मांन में ढूंढणौ पड़सी। आज री स्त्री जद पुरखां री सिरजीजेड़ी भय री काळकोठड़ी सूं बारै नीं आ सकसी तद तांणी वा खुद ऊंचाइयां रा अरमांन नीं सजाय सकसी। इणी कारणै स्त्री नै इतियास री पथरीली जमीन नापणी पड़सी। स्त्री कदै तांणी हाडी राणी रै कटेड़ै सिर नै लियां ऊभी रैयसी। कदै ई तौ सिर नै चक्यां-चक्यां हाथ थकसी ई। अर जद वौ थकेलौ आयसी तद वींनै सोचणौ पड़सी कै हाडी राणी री बडम सिर काटनै सैनांणी देवणै में नीं ही, असली बडम तौ हेताळू साथै जुद्ध में जायनै वीरता सूं लड़तां थकां सिर कटवावणै में ही। आज हाडी राणी रूपी स्त्री री अस्मिता जगावण सारू डाढा जतन करणा पड़सी।
आदिकाल रै ओळाव ई क्यूं, आधुनिक काल रै अैड़ै-नैड़ै आपां अैड़ी घणी बंतळ कर सकां हां। पण बदळतै बगत-बायरै बिचाळै कवि-कथाकारां नै ई तौ बदळणौ पड़सी। आ बंतळ ई तौ हुवणी चाइजै। चाइजै कै नीं? चाइजै, क्यूंकै अजै ई स्त्री सारू काळी रात ढळी नीं है। पुरख अर स्त्री सारू जद बरौबरी री बंतळ सरू हुयसी तद ई नवै सूरज रौ ऊजास हुयसी। बीजी भासावां रै साहित्य में अैड़ी बंतळ सरू हुयग्यी। राजस्थानी साहित्य में ई बेसी रूप सूं हुवणी चाइजै।

2 comments:

  1. व्यापक, व्यवस्थित व पठनीय लेख !

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  2. रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातम् !

    :) :)

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