दैनिक युगपक्ष, 4 मार्च, 2012
 हिन्दी साहित्य के विशाल फलक पर गत तीन दशक काफी उद्वेलन भरे रहे हैं। इन दशकों में विमर्शों की छाया हमें स्पष्ट दिखाई देती हैं। उसमें चाहे दलित की चर्चा हो, या स्त्री या फिर भूमण्डलीय हलचलों की चर्चा। यह सब हमारे दिमाग की ग्रंथियों को सक्रिय कर देता है जो लम्बे समय से वाद-विहीन सोच का अनुसरण करता रहा है।
हिन्दी साहित्य के विशाल फलक पर गत तीन दशक काफी उद्वेलन भरे रहे हैं। इन दशकों में विमर्शों की छाया हमें स्पष्ट दिखाई देती हैं। उसमें चाहे दलित की चर्चा हो, या स्त्री या फिर भूमण्डलीय हलचलों की चर्चा। यह सब हमारे दिमाग की ग्रंथियों को सक्रिय कर देता है जो लम्बे समय से वाद-विहीन सोच का अनुसरण करता रहा है।  
@ Dr. Krishna Jakhar डॉ. कृष्णा जाखड़
 हिन्दी साहित्य के विशाल फलक पर गत तीन दशक काफी उद्वेलन भरे रहे हैं। इन दशकों में विमर्शों की छाया हमें स्पष्ट दिखाई देती हैं। उसमें चाहे दलित की चर्चा हो, या स्त्री या फिर भूमण्डलीय हलचलों की चर्चा। यह सब हमारे दिमाग की ग्रंथियों को सक्रिय कर देता है जो लम्बे समय से वाद-विहीन सोच का अनुसरण करता रहा है।
हिन्दी साहित्य के विशाल फलक पर गत तीन दशक काफी उद्वेलन भरे रहे हैं। इन दशकों में विमर्शों की छाया हमें स्पष्ट दिखाई देती हैं। उसमें चाहे दलित की चर्चा हो, या स्त्री या फिर भूमण्डलीय हलचलों की चर्चा। यह सब हमारे दिमाग की ग्रंथियों को सक्रिय कर देता है जो लम्बे समय से वाद-विहीन सोच का अनुसरण करता रहा है।  
बीते कुछ वर्षों में दलित ने अपने अधिकारों को पहचाना है और उन्हें पाने के लिए संघर्ष भी किया। इस संघर्ष में कलम ने एक हथियार का काम किया। दलित के भाव जब शब्दबद्ध होकर कागज पर उतरने लगे, तब दुनिया ने उसके अंदर चरमरा रहे उस दर्द को महसूस किया, जिसे आजतक वह अकेला ही झेलता आ रहा था।
अधिकार-प्राप्ति की यह लड़ाई दलित पुरुष को सिर्फ एक-तरफा लड़नी पड़ी तो वहीं दलित स्त्री ने दोनों मोर्चो पर लड़ी। घर के बाहर वह दलित की समग्र लड़ाई में पुरुष के साथ थीं, घर के अंदर घुसते ही वही पुरुष उसके खिलाफ खड़ा मिलता। यहां आकर यह स्त्री-अस्तित्व की लड़ाई बन जाती है, जो पितृसत्ता के साथ-साथ खुद से भी लड़नी पड़ती है। अंधेरी घाटियों में कैद दलित स्त्री ने दोनों स्तरों पर संघर्ष के लिए कमर कस ली और वह अनेक उदाहरणों के साथ प्रस्तुत हुईं। 
कौसल्या बैसंत्री इसी कड़ी का एक नाम है। जो दलित लेखिकाओं में अपने मुखर स्वर के साथ खड़ी हुईं। बैसंत्री प्रथम दलित महिला है, जिनकी आत्मकथा ने अंधेरे सिलन-भरे घरों में रोशनी की कुछ किरणें फैलाई।
कौसल्या बैसंत्री का जन्म अप्रेल, 1927 में नागपुर की कच्ची बस्ती के एक दलित परिवार में हुआ। इनके मां और बाबा मजदूरी करते, सामाजिक यातनाएं झेलते, रोज नए संघर्षों से दो-दो हाथ होते, लेकिन अपने बच्चों को स्कूल भेजते। सामाजिक विषमताओं से जूझते मां-बाप की कुल ग्यारह संतानों में से दूसरी संतान कौसल्या ने नागपुर से इंटरमीडिएट और पंजाब युनिवर्सिटी से बीए किया।
कौसल्या बैसंत्री ने अपनी आत्मकथा ‘दोहरा अभिशाप’ में दलित परिवार की समस्याएं पाठक के सामने इस ढंग से रखी कि वह अपने चिंतन के समस्त स्रोत लगाते हुए तादात्म्य स्थापित करे। छोटी-छोटी समस्याओं से जूझ रहे बच्चे के मानस को दर्शाने में बैसंत्री ने जबरदस्त सफलता पाई। एक दलित बच्चा स्कूल में खुद को अलग तरह का प्राणी महसूस करता है। उसके अंदर हीन भावना गहरी जड़ जमा चुकी होती है। उसकी योग्यताएं दमित हो जाती हैं। वह कुंठित बच्चा किस प्रकार अपनी हर इच्छा को अंदर ही अंदर शमित कर देता है, यह सब कौसल्या के स्कूली जीवन को पढ़कर महसूस किया जा सकता है। लेखिका ने अपने साथ-साथ परिवेश को भी उठाया। जिसमें उस जैसे अनेक बच्चे इन समस्याओं से डरकर स्कूल से जी चुराते हैं।
‘दोहरा अभिशाप’ में कौसल्या का बचपन, स्कूली जीवन के साथ-साथ बाबा और मां का जीवन संघर्ष भी बराबर चलता रहा है। स्त्री की तीन पीढि़यों का ब्योरा इसमें मिलता है। लेखिका की नानी आजी, मां भागेरथी और स्वयं कौसल्या बैसंत्री।
कौसल्या बैसंत्री ने लेखन के बहाने भारतीय समाज में दलित स्त्री की आजादी की आवाज बुलंद की। जातीयता के नाम पर लेखिका को कितनी मानसिक यातनाएं सहनी पड़ी और आस-पास की समानांतर चलती कथा में कितनी ही स्त्री इस पीड़ा में छटपटा रही हैं, यह एक संवेदनशील व्यक्ति की आंखें खोल देने वाला होता है। लेखिका की मां भागेरथी की संघर्षमय जीवनगाथा में एक अनपढ़, गरीब, दलित मजदूर स्त्री की वह ताकत हमारे सामने प्रकट होती है, जो हिमालय की सी अटलता लिए हुए है। अपने लड़के और लड़कियों को पढ़ाने के लिए यह स्त्री थका देने वाली मेहनत के बाद भी सुकून महसूस करती है और अपने निश्चय पर अडिग रहती है। अपनी लड़कियों को आजादी की किरण खुद मुहैया कराती है। लेखिका की मां का संघर्ष प्रत्येक स्त्री को वह ताकत देता है जिससे स्त्री अपनी आने वाली पीढि़यों को आजादी की राह दिखाने की हिम्मत करती है।
लेखिका ने अपनी आत्मकथा ‘दोहरा अभिशाप’ में गरीबी, अभाव, अशिक्षा, अज्ञान, अंधकार, सामाजिक असमानता, अंधविश्वास और जातीय नफरत से बच्चों, स्त्रियों और विशेषकर दलित बालिकाओं के मानसिक स्तर पर पड़ रहे प्रभावों का मार्मिक वर्णन किया है।
दलित स्त्री अपने सामने फैले संभावनाओं के फलक को छू सके, यही स्वप्न पाले कौसल्या बैसंत्री आत्मकथा के बहाने मार्ग प्रशस्त करती हैं। एक बार राहें खुल जाती है ंतो कदम खुद-ब-खुद बढ़ने लगते हैं। कौसल्या ने दलित स्त्री के लिए मुखर होने का मार्ग प्रशस्त किया। एक दलित स्त्री द्वारा सृजित ‘दोहरा अभिशाप’ पहली आत्मकथा थीं, जिसमें केवल स्वय का ही नहीं, संपूर्ण परिवेश का इतिहास, वर्तमान छिपा था। 
24 जून, 2011 को चुपचाप कौसल्या बैसंत्री हमारे बीच से चली गईं। परंतु अपनी रचनाओं के माध्यम से हमारे बीच सदैव रहेंगी। और तो और, मात्र आत्मकथा ‘दोहरा अभिशाप’ ही उन्हें अमर रखेगी, जहां एक दलित स्त्री पूरे वजूद के साथ खड़ी है।
 
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