@ Dr. Krishna Jakhar डॉ. कृष्णा जाखड़
बादली! हां, युग-युग से इस धरा के मानव ने मुझे इसी नाम से पुकार है। कंधे पर हल रखे हाली ने मेरा ही राग छेड़ा है तो पनिहारी ने उल्लसित होकर मुझे ही गुनगुनाया है। मोर ने मुझे देखकर ही केका ध्वनि की है। हरिण ने मेरी ही फुंहारों से भीगकर चैकडि़या भरी हैं। स्त्रियों ने मुझे ही गीतों में गाया है, कवि ने कविता के शब्द मोतियों में पिरोया है।
राजस्थान में फैले बालू के समुद्र में एकमात्र मैं ही आशा की किरण हूं। मेरी बूंदों के स्पर्श से ही यह सोनल धरा यौवन की अंगड़ाई लेती है। भला ऐसे में, कवि मेरे स्पर्श से कैसे वंचित रहता? उसने कल्पनाओं में मेरे साथ उड़ान भरी और मुझ गाया। यहां के कवि ने लू, आंधी, सूंटो, डांफी आदि पर भी काव्य रचा। कवि के प्रकृति काव्य की प्राथमिकता मैं ही बनी रही।
ऐसे ही कवि है चंद्रसिंह बिरकाली; जिन्होंने अपना एक पूरा काव्य संग्रह ही मुझे समर्पित कर दिया। मेरे इस काव्य की लोकप्रियता के कारण बिरकाली जी की पहचान चंद्रसिंह बादळी नाम से होने लगी।
मरुधरा ग्रीष्मकाल में जब तपने लगती है, तो यहां का हर प्राणी ऊपर की ओर टकटकी लगाए मेरा इंतजार करता है। इंतजार लम्बा होता देख कवि पुकार उठता हैः
आठूं पोर अडीकतां
बीतै दिन ज्यूं मास।
दरसण दे अब, बादळी
मत मुरधर नै तास।।
राजस्थान की बरसाती नदियां एवं सरोवर मानसून के विदा लेने के साथ ही सूखने लगते हैं। पूरा ग्रीष्मकाल मेरे इंतजार में निकलता है। मानसून का समय आने पर भी यदि मैं नहीं बरसती तो सोनल धरती बड़ी आशा भरी निगाहों से बोल उठती है-
नहीं नदी-नाळा अठै
नहीं सरवर सरसाय।
अेक आसरो बादळी
मरू सूकी मत जाय।।
जब बड़े इंतजार के बाद मैं आती हूं, तब धरा के हृदय-सरोवर में लहरें उठने लगती हैं। मेरे स्वागत में वह सर्वस्व अर्पित करने को आगे बढ़ती है लेकिन उसे निराश होना पड़ता है। तब तक धरा का यौवन सूख चूका होता है, उपहार स्वरूप सिर्फ सूखे पत्ते ही दे पाती हूं-
आयी घणी अडीकतां
मुरधर कोड करै।
पान फूल सै सूकिया
कांई भेंट धरै?
विलंब से ही सही, परंतु जब मैं आती हूं तो मेरे दर्शन मात्र से ही धरा का कण-कण मुस्करा उठता है। जैसे अपना कोई परदेस से लौट आया हो और उसे देखकर आंखे खुशी से उमड़ पड़ी हों, वैसे ही सोनल धरा भी मुझे देखकर अति-उत्साहित हो उठती है-
सोनै सूरज अूगियो
दीठी बादळिया।
मुरधर लेवै वारणा
भर-भर आंखडि़या।।
मुझे आसमान में छाई हुई देखकर बच्चा मेरे रूप में अनेक कल्पनाएं करता है। वह कभी हाथी, ऊट, घोड़ा तो कभी खरगोश की आकृतियां मुझमें खोजता है। कल्पना के रंगीन पंख लगाकर वह मेरी सैर करता है। कवि बच्चे से कुछ आगे बढ़ जाता है और मुझे सूर्य की प्रियतमा के रूप में व्यक्त करता है-
सूरज साजन आवसी
बैठी पेअी खोल।
बदळ-बदळ धण बादळया
पहरै वेस अमोल।।
कवि को मैं दिनकर की प्रियतमा लगती हूं, वहीं विरहिणी को भी अनेक रूपों से रिझाती हूं। विरहिणी कभी मुझे सौतन की संदेशवाहक तो कभी पति की संदेशवाहक स्वरूप में देखती है। आखिरकार वह अधीर हो प्रियतम का संदेशा मुझसे पूछने लगती है-
सज धज आवै सामनै
चालै मधरी चाल।
सैण-सनेसो बादळी
सुणा-सुणा तत्काल।।
मेरी मधुर गर्जन और बिजली की चमक विरहिणी को हृदय-विदारक लगती है। प्रियतम मिलन के लिए वह तड़प उठती है। जब मैं बिजली की चमक में लिपटी हुई उसे दिखाई देती हूं तो उसे नायक से मिलन करती हुई नायिका जैसी लगती हूं। उसका हृदय मिलन-प्यास में व्याकुल हो उठता है-
ज्यूं-ज्यूं मधरो गाजियो
मनड़ो हुयो अधीर।
बीजळ पळको मारतां
चाली हिवड़ै चीर।।
उमड़-घुमड़ कर जब मैं आती हूं तो बुझे हुए मन को मानो मैं अधीर कर देती हूं। मेरी बूंद जब जमीं पर गिरती हैं तो प्रकृति की कलियां चटकने लगती हैं। प्रेमी अपने हृदयों पर पड़े विरह रूपी परदों को उठा देने के लिए व्यग्र हो उठते हैं-
आभै अमूझी बादळी
घरां अमूझी नार।
धरा अमूझ्या धोरिया
परदेसां भरतार।।
मैं जब पानी से पूरी धरा को तृप्त कर देती हूं तो धरती के सीने में पड़े बीज पत्तियां सजाकर बाहर आते हैं। चारों तरफ से हरियल चुनर को देख घर से दूर गए हुए जन घर आने के लिए लालायित हो उठते हैं-
अुठती दीसी बादळी
मअू रह्या जे आज।
घर कानी जी चालियो
सुण-सुण मधरी गाज।।
मैं इंद्र का संदेश लेकर आती हूं। वह धरती से मिलने को अधीर हो उठता है और मेरी बूंदों में मिलन की अरज लिख भेजता है। धरती मेरी बूंदों को पढ़ लेती है और इंद्र से मिलने के लिए शृंगार करती है। इसी बात को लेकर कवि कह उठता है-
गांव-गांव में बादळी
सुणा सनेसो गाज।
इंदर वूठण आवियो
तूठण मुरधर आज।।
मेर आगमन के महीने भर बाद राजस्थान की धरा पर रंगों के उत्सव मनाए जाने लगते हैं। धरा की हरी चुनर पर गोरी का रंगीन लहरिया उड़ने लगता है। सावणी तीज को हरियल वृक्षों पर झूले पड़ जाते हैं। रंगों में खिली हुई तीजणियां झूलते हुए लगती हैं जैसे मुझसे मिलने आ रही हैं-
तकड़ै हींडां तीजण्यां
जावै लाग अकास।
बादळियां सामी मिलै
भर-भर हियै हुळास।।
मेरी घटाओं के बीच जब धरा की मखमली चादर पर सखियां मिलजुल गीतों की झडि़यां लगाती हैं, तब मैं भी बरसने के लिए लालायित हो उठती हूं। कवि के शब्दमोती इस दृश्य को रूपायित कुछ ऐसे करते हैं-
रळमिळ चाली तीजण्या
गाती राग मल्हार।
भणक पड़ी जद बादळी
बरस पड़ी अुण बार।।
सावन मास से लेकर कार्तिक मास तक राजस्थान की मरुभोम में तीज, त्योंहार और मेलों की धूम मची रहती है। इस दौरान मैं आसमान में विचरती हुई यहां सौंदर्य का पान करती रहती हूं। मेरी फुंहारों से भीगकर इस सौंदर्य में सृष्ठि की सारी कलाएं समा जाती हैं। इस मनमोहक धरा-शृंगार की कवि कल्पना करता है-
भूरा-भूरा धोरिया
परिया मामोल्यां।
चरच्यो धरा लिलाड़ ज्यूं
कूं-कूं री टीक्यां।।
बूंदी लाल ममोलिया
हरियो आंगण खोड।
ओढ़ी धरती चूनड़ी
तीजणियां री होड।।
धरा मरवण शृंगार करती है। उसकी धानी चूनर पुरवाई के साथ लहराती है तो लगता है कोई अल्हड़ किशोर पगडंडियों पर इठलाती हुई चल रही है। मैं भी चंचल बाला की तरह पुरवाई के साथ आसमान में दौड़ती रहती हूं। मेरी चपलता के कारण कभी नीलाबंर निखर जाता है, तो कभी मुझसे घिर जाता है। कभी रूप बदल-बदलकर मैं कवि को रीझाती हूं-
नीलो अंबर नीखर्यो
जाण समद अपार।
कठै काळा चूंखला
मगरमच्छ उणियार।।
बण-ठण आई बादळी
राची धर रंग-राग।
चेतन अत चंचळ हुयो
जड़ जग उठियो जाग।।
मरु रजनी में चंद्रमा मेरे साथ मिलन उत्सव मना रहा है। वह इस मिलन बेला में भूल ही गया कि उसके दीदार के लिए धानी चूनर ओढ़े मूमल धरा अधीर हो रही है। कवि हृदय धरा से एकाकार हो उठता है-
चांद छिपायो बादळ्यां
धरा गमायो धीर।
सुरंगी साड़ी अूपरां
ओढ़्यो सांवळ चीर।।
चतुर्थी व्रत रखने वाली सुहागिने चंद्र दर्शन के लिए आतुर हैं। लेकिन मैं प्रिय चांद को घेरे खड़ी हूं, तब सुहागिने कैसे देखें अपने इस चित्तचोर को-
चूसी किरणां चोज सूं
आभै पड़ता आज।
टुग-टुग जोवै चोथणी
बादळियां रै राज।।
सुहागिने मुझसे बार-बार विनती करती हैं कि बस चांद की एक झलक उनको देख लेने दूं। चंद्र दर्शन के बाद ही वे अपने प्रिय से मिल सकेगीं-
विनवां थांसूं बादळ्यां
खोलो खांडी कोर।
म्हांनै इतरो मोकळो
आंखड़ल्यां रो चोर।।
मेरे आने से जड़ प्रकृति भी चंचल हो उठती है। मेरे बरसने पर शीतल बयार बहने लगती है। हरे-भरे पेड़ की डालों पर पक्षी चहकने लगते हैं। प्रकृति में रहने वाले स्वतंत्र पशु कोरे टीलों पर अट्ठखेलियां करने लगते हैं। शिशु आनंद विभोर हो उठते हैं और विभिन्न मुद्राओं से मेरा स्वागत करते हैं-
नान्हा गीगा पालणै
खिल-खिल अूछळिया।
चूसै गूंठो चाव सूं
मारै पग्गलिया।।
बच्चों के इस आनंदातिरेक में मैं भी मोहित हो उनसे मिलने को लालायित हो उठती हूं-
नाचै खड़ी गुवाड़ में
टाबरियां री टोळ।
झुक-झुक जोवै बादळी
अुझळ पड़ै दे छोळ।।
कवि के इस जींवत चित्रण से मोहित हो मैं पानी से सब ताल-तलैया भर देती हूं-
तिरियां-मिरियां तालड़ा
टाबर तड़पड़ातांह।
भागै तिसळै खिलखिलै
छप-छप पाणी मांह।।
कवि मेरे चित्रणों में प्रत्येक जीव की खुशी उकेर रहा है। लगता है कवि सबके हृदय की थाह लेनी आती है-
पी-पिहु बोल पपीहड़ा
टी-टिहु टीटोड़यांह।
पिहू-पिहू रव मोरिया
हालै हूक जड़्यांह।।
बोलै हरिया सूवटा
अुड-अुड बिरछां डाळ।
डरर-डरर रव डेडरां
पोखरियां री पाळ।।
जब चारों तरफ उत्साह का सागर लहरें ले रहा हो तब पालतू पशु क्यों पीछे रहें? गाय प्रजाति के उमंग को कवि व्यक्त करता है-
खरसंडिया खैरूं करै
गोर दड़ूकै सांड।
नारा गोधा बाछड़ा
मच-मच होवै टांड।।
सर्प-प्रजाति भी जमीन से बाहर आ जाती है और भीगी हुई बालू रेत में किलोल करती है-
बांडी काळा गोहिरा
सरळक अर संखचूड़।
परवा में गैळीजिया
लिट-लिट ठंडी धूड़।।
फसल अब पकने लगी है और मेरे परवान की मध्यावय आ गई है। अब मैं धैर्य से पानी भर सकती हूं। यौवन जा रहा है अत मुझमें भी समझ प्रौढ़ हो गई है। यौवनमद में पानी फटकारूं तो फसल का नुकसान होगा। इसलिए मैं चतुर नारी की तरह कदम रखती हूं। देखो मेरे संयम से धोरे लहलहा रहे हैं-
मोठ कटोरा जोड़ में
माची-माची बेल।
फूलां भार लदी पड़ी
बिच-बिच चींया मेल।।
अब मेरा भार कम होने लगा है। मुझमें पानी की मात्रा कम होती जा रही है। मेरा उत्साह वृद्धावस्था को प्राप्त हो गया है। मरुधरा भी तृप्त हो गई है। वह अपनी वनस्पति को देखकर मुस्करा रही है। खड़ी फसल में दाने परिपक्व अवस्था में आ गए हैं। अब यदि मैं अपने चंचल स्वभाव को धारण करूं तो धोरों के मानव का धीरज छूटने लगता है। कवि मुझसे निवेदन करता है-
बिरखा काठी राखले
मतना कोसो झाड़।
पाकां धानां मत करै
ओळां री बोछाड़।।
धोरों का कर्मठ व्यक्ति अब मुझेे विदा करने के लिए मानसिक रूप से तैयार हो गया है। वह अपनी फसल बटोरने के लिए प्रस्तुत है। यहां का स्वाभिमानी इंसान जितने उत्साह से मेरा स्वागत करता है, उतनी ही शालीनता से मुझे विदा कर रहा है। वह मुझे बार-बार याद दिलाता है कि मैं जल्दी लौट आऊं-
आज सिधावो तो सिधो
दीज्यो मती बिसार।
तिसवारी जद आवसी
सुध लीज्यो अुणवार।।
कवि मुझे विदा कर रहा है और याद दिला रहा है कि उसकी सोनल इस सोनल धरती की प्यास पूरने वाली एकमात्र मैं ही हूं। जब वर्षा रूत आए तो इन धोरों से मिलने फिर आ जाऊं-
सिधा-सिधा अे बादळी
बस सुरगां रै वास।
बरसाळै मत भूलजे
तूं ही मुरधर आस।।
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