व्यवस्था की बखियां उधेड़ती पुस्तक


खोजी मिले घुमक्कड़ से

 @ Dr. Krishna Jakhar डॉ. कृष्णा जाखड़


लोक जीवन का सतत्, निर्मल प्रवाह किसे मोहित नहीं करता। यहां निश्छल व्यवहार है तो बेबाक अभिव्यक्ति। यहां प्रेम है, भक्ति है, श्रद्धा है तो इन सबके समानांतर व्यंग्य की धारा है। लोक जीवन में कहीं गीतों में तो कहीं कहावतों एवं लोकोक्तियों में व्यंग्य की प्रहारक क्षमता नजर आती है। स्थान एवं अभिव्यक्ति विशेष में सामान्यजन भी व्यंग्य का प्रयोग करता आया है। विसंगतियों में व्यंग्य हमेशा प्रखर हो उठता है। खुसरो की कविता में व्यंग्य का पुट मिलता है। कबीर के व्यंग्यात्मक दोहों का तो आज भी कोई मुकाबला नहीं है। यहां यह कहा जा सकता है कि साहित्य में व्यंग्य की प्रवृत्ति आदिकाल से ही चली आ रही है।
विधागत समझे तों वैसे उपन्यास, कहानी, कविता आदि सभी में व्यंग्य मौजूद है परंतु रचनाकारों ने इस विधा को इतना समृद्ध किया कि इसे अलग से परिभाषित किया जाने लगा और ‘व्यंग्य’ स्वतंत्र विधा बन गई।
एक मायने में हिंदी साहित्य में बालमुकुन्द गुप्त ने  ‘शिव शंभु का कच्चा चिट्ठा’ के माध्यम से व्यंग्य विधा की जो नींव रखी, आज वह भव्य अट्टालिका बन चुकी है। भारतीय जनतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था ने इस विधा को खूब प्रोत्साहन दिया। यहां की विविधतामयी संस्कृति एवं रूढि़यों ने इसे सींचा। हिंदी साहित्य में आज यह वल्लरी फैलती हुई जो विस्तार पा रही है उसमें विशेषरूप से हरिशंकर परसाई के व्यंग्यकार रूप का योगदान अतुलनीय है। उन्होंने व्यंग्य विधा को सुव्यस्थित रूप प्रदान किया। उसी परंपरा में आज अनेक साहित्यकार अपनी लेखनी चला रहे हैं। 
व्यंग्य हो या इतर विधा, साहित्य सृजन में काल का बड़ा योगदान होता है। बीसवीं सदी के अंतिम दशकों से ही हमारी राष्ट्रीय चेतना में परिवर्तन आया है। हमारी बौद्धिक क्षमता अधिक विकसित हुई, वहीं आत्मिक अनुभूति की गुणवता में पतन हुआ है। भोग की बढ़ती प्रवृत्ति के फलस्वरूप निर्मित आर्थिक दबाव की स्थितियों ने व्यक्ति की संवेदना को कुंद कर दिया। भूमंडलीय युग की सिमटती भौतिक सीमाओं एवं पसरती भावनात्मक दूरियों ने व्यक्ति को स्वार्थों का पुतला बना दिया। संस्कार, संवेदना, उदारता, प्रेम, सौहार्द, स्नेह आदि शब्दों को पोषण देने वाले व्यक्ति को आज पागल नहीं तो पागल से कम भी नहीं समझा जाता।
व्यंग्य संग्रह ‘खोजी मिले घुमक्कड़ से’ में राजेंद्र जी कसवा ने इन सभी विसंगतियों पर करारा प्रहार किया है। इस पुस्तक में समाज, राजनीति, साहित्य तथा प्रशासनिक व्यवस्था आदि सभी में मौजूद खामियों को उघाड़ा गया है। इस व्यंग्य संग्रह में कुल 33 व्यंग्यों का समावेश किया गया है। सभी व्यंग्य विषय भिन्नता के साथ ताजगी लिए हुए हैं।
‘बात शुरूआत की’ में लेखक ने अपनी रचना की आधारभूमि की संरचना प्रस्तुत की है। ‘खोजी’ और ‘घुमक्कड़’ को पैदा किया है और उनको जुमला बनाते हुए रचना-संसार का विस्तार देने का नायाब तरीका ईजाद किया है। चाय का ढाबा किस ढंग से संसार के अवलोकन का केंद्र बन सकता है, यह सभी व्यंग्यों से गुजरने के बाद समझा जा सकता है। 
व्यंग्यों की कड़ी में संकलन ‘मेरा गांव बनाम विश्व ग्राम’ से कदम बढाता है। प्राकृतिक संसाधनों की पेटेंट प्रवृत्ति पर यहां करारा व्यंग्य है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां किस प्रकार कृषि भूमि, वन भूमि, बागानों एवं जल स्रोतों पर कब्जा करती जा रही है, यह विचार करते हुए प्रकट किया गया है कि आज किसान को अनाज की जगह मादक उत्पाद, गुलाब, उद्योगों में काम आने वाली फसलों को पैदा करने के लिए विवश किया जा रहा है। इन फसलों से वह पैसा तो कमाता है मगर उन पैसों से वह बाजार से घर सिर्फ संसाधन ही खरीद कर ला रहा है। वे संसाधन जोकि उसके लिए हानिकारक ही नहीं आत्मघाती भी हैं। इसी व्यंग्य में लेखक प्रवासी व्यवसायियों की मानसिकता को नंगी करते हुए स्थानीय नेताओं एवं प्रशासनिक अधिकारियों की भी पोल खोलता है। उनकी भौतिक एवं कामुक वृत्ति को व्यंग्यकार इस ढंग से रूपांकित करता हैं कि पाठक आलोडित हो उठता है। यह शुरूआती व्यंग्य पाठक को अपने प्रति इस कदर मोह लेता है कि वह संकलन के समापन तक साथ जुड़े रहने का संकल्प कर बैठता है। 
‘तीसरे मोर्चे की खोज’ व्यंग्य में वामपंथियों की रूढि़वादी मानसिकता पर चोट की गई है। इस व्यंग्य के कामरेड मुखिया दीखावे के लिए लाल रंग की प्रधानता रखते हैं। रचनाकार व्यंग्य में प्रकट करता जाता है कि जहां माक्र्स ने गरीब जनता की पीड़ा को लिखा, उनके संघर्ष को जन में रूपायित किया और भुक्ताओं को संघर्ष के लिए प्रेरित किया वहीं आधुनिक कामरेड कहलाने वाले लोग आम जन को ही भूल गए। स्वार्थों के पुतले बन कर दूसरी विचारधाराओं के पोषकों की मानिंद अनुसरित हो गए। इस व्यंग्य का कामरेड कहता है- ‘‘नहीं बंधु, ऐसा हमारा सिद्धांत नहीं है। हमारे यहां व्यक्ति महत्त्वपूर्ण नहीं, पार्टी और सिद्धांत सर्वोपरि हैं।’’ लेखक इस नीतिगत कथन को जिस वक्र दृष्टि से प्रस्तुत करता है, वहीं लगता है कि रचना सही कलम से निकली है। जिस राजनीतिक दल को जनता ने उद्धारक समझा, उसके घिनोनै चेहरे को लेखक ने उघाड़ा है। इस व्यंग्य को पढने के बाद पाठक की कई धारणाएं टूटती हैं। कामरेड कहे जाने वाले नेताओं की असलियत से नकाब उतरता है। पाठक सोचने को विवश हो जाता है।
संग्रह के प्रत्येक व्यंग्य में इस भांति की धार है। मगर कहीं-कहीं वह अधिक पैनी और मारक बन गई है। व्यवस्था के फोड़ों में चीरा लगाती हुई वह पीड़ा सागर में हलचल मचा जाती है।
जनसेवक, समाजसेवक, विभिन्न संगठनों के पदाधिकारियों की काली-करतूतों पर से परदा उठाते हुए व्यंग्यकार ने उन पाखंडियों के असली चेहरे को प्रस्तुत किया है। रचनाकार ने नेताओं की दोगली नीति, भ्रष्ट मानसिकता एवं भोग लिप्सा की उत्कंठा के साथ-साथ दूसरे तबके यथा पत्रकार जगत के सत्य को भी उद्घाटित किया है। उनकी अय्यासी और चापलूसी के कारनामों के बहाने वास्तविकता को प्रकट किया है।
चर्चित रहने एवं नाम कमाने के लिए एक व्यक्ति किस तरह के हथकंडे अपनाता है, यह तथ्य ‘बूढ़ा बच्चा नौरंगी’ व्यंग्य में मुखर हुआ है। इस कृषि प्रधान देश में कृषकों के नाम से जितनी अधिक योजनाएं बनती हैं, किसान उतना ही गरीब होता जा रहा है। विभिन्न कल्याणकारी योजनाएं उसे ऋणी करती जाती हैं और वह ऋण के नीचे दबा कई बार तो इतना आक्रांत हो उठता है कि आत्महत्या जैसा कदम भी उठा लेता है। देश का कृषि मंत्री किसानों की इस बुरी गत से अनजान बना रहता है। पद का भोग तो करता ही है, साथ ही क्रिकेट जैसे आभिजात्य खेल का हिस्सा भी बना रहता है। किसानों की नष्ट हुई फसल का मुआयना करने वाली टीम किस तरह अय्याशी करती है, यह चिंतनीय है। इन हवालों को व्यंग्य की भाषा में लेखक जिस ढंग से प्रस्तुत करता है, यहां स्तुत्य तो वह है। ‘कृषि मंत्री: चीयर्स लीडर’ तथा ‘सफेद हाथियों का ताण्डव नृत्य’ जैसे व्यंग्य तो अंदर तक झकझोरते हैं। 
सामाजिक ताने-बाने में बाहर से उजले एवं शरीफ दिखने वाले समाज के ठेकेदार कितनी कमजोरियों के खजाने हैं, यह व्यंग्यकार सहजता से कह जाता है। उनकी काली करतूतों को इस तरह प्रस्तुत करता है कि पाठक आत्मसात होता चलता है। 
राजशाही से होते हुए आज हम लोकतंत्र का हिस्सा बन गए, मगर आज भी हम पिस रहे हैं, मर रहे हैं, मूर्ख बनाए जा रहे हैं। आश्चर्य तो यहां यह है कि हम सब चुप हैं। अपना ही तमाशा देख रहे हैं, तालियां बजा रहे हैंै। धर्म के नाम पर हम ठगे जाते हैं और भाग्य का दोष समझकर मौन हैं। पांखडी पंडों के जाल में फंसे रहते हैं और किस्मत सुधरने का इंतजार करते हैं। धार्मिक यात्राओं स्वांग भरते हैं। व्यंग्यकार सत्य को उद्घाटित करते हुए व्यंग्य बाण चलाने से कब चुकता है? हमारे व्यंग्यकार राजेंद्र कसवा भी इन परिस्थितियों को ‘धर्म-ध्वजों की बहार’ व्यंग्य में बेबाकी से प्रकट करते हैं। 
इस संग्रह की उल्लेखनीय बात यह है कि व्यंग्यकारों का प्रिय पात्र नेता तो मौजूद है परंतु वह दलगत भावना से ऊपर। यहां कामरेड है, गठबंधन हैं, सत्तासीन केंद्रीय नेता हैं, सत्ता प्राप्ति के ख्वाबों में डूबे दूसरे नेता हैं। इस बड़े समूह को व्यंग्यकार ने समेटा है और चुटकियां लेते हुए यथार्थ से साक्षात्कार करा डाला है। व्यंग्यकार राजेंद्र कसवां को इस व्यंग्य संग्रह के बहाने इस लिए भी याद किया जाएगा कि साहित्यकार, पत्रकार, आयोजक, प्रायोजक और भी न जाने कितने ऐसे पहलू हैं, जोकि उन्होंने व्यंग्यकारों के लिए भूमिका के साथ प्रस्तुत कर दिए हैं। कुछ विषय तो एकदम नए हैं। 
भाषा, शैली और शिल्प की गवेषणा से इतर यह व्यंग्य संग्रह बड़ा मारक है। विचारों की बोझिलता इसलिए आड़े नहीं आती कि बौद्धिक वर्ग की विचार प्रधान अभिव्यक्ति में यह लाजमी हैं। 
व्यंग्यकार राजेंद्र कसवां सबसे ज्यादा तो बधाई के पात्र अपने संग्रह के पात्रों की सृजना के लिए हैं। खोजी और घूमक्कड़ किसे नहीं लुभाते? तीखी और पैनी व्यंग्योक्तियां अंदर तक हिलाती हुई, सोचने को विवश कर जाती हैं। हमारी ओर से व्यंग्यकार को ऐसे श्रेष्ठ संग्रह के लिए बधाई। साथ ही बधाई, इस बात की कि उन्होंने संग्रह में एक मारक कहानी भी प्रस्तुत की। यह इन व्यंग्यों का विषय विस्तार ही है। कल्पनाजाल बुनती हुई कहानी व्यंग्य के असर से कहां बच पाती है, और ऐसी बेहतर कहानी एक व्यंग्यकार के अलावा दूसरा कौन लिख सकता है। कहानी अपनी कहानी के बहाने असर स्वयं बताती है। तभी तो ‘क्रांति की एक रात’ का उल्लेख किया जाता रहेगा।
(Desert Times 24 Nov. 2012)


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