प्रकृति कवि केदारनाथ अग्रवाल


 @ Dr. Krishna Jakhar डॉ. कृष्णा जाखड़


हिन्दी साहित्याकाश में अनेक चमकते तारों का उदय हुआ है। जिनमें से कुछ तारे चांद की मानिंद ख्यात हुए तो कुछ विषमताओं रूपी अंधेरों को मिटाने की क्षमता रखने वाले भाष्कर बन गए। ये साहित्य के अनेक पड़ाव पार करते हुए हमेशा प्रासंगिक बने रहे। त्रस्त मानव की पीड़ाओं को आत्मसात कर उनको उकेरने वाले ये साहित्यकार आज भी पाठक वर्ग के कंठहार बने हुए हैं। ऐसे ही साहित्यकारों में से एक देदीप्यमान, अमर कीर्ति प्राप्त, अलहदा व्यक्तित्व वाला रचनाकार है- कविवर केदारनाथ अग्रवाल।
छायावाद की रोमानी कविता ने उस समय के हर युवा को लुभाया। केदारनाथ ने भी इस प्रकृति-सुंदरी की अलकों का स्पर्श पाकर काव्ययात्रा शुरू की। बहुत जल्दी ही वे काव्य की इन काल्पनिक तरंगों से उतर आए और आमजन के बीच खड़े हो उनकी पीड़ाओं को पीने का प्रयास करने लगे। जन के बीच आकर उन्होंने महसूस किया कि अधिकारों से वंचित रहे तबके के लिए उन्होंने क्या किया? व्यक्ति के प्रति कुछ न कर पाने की यह टीस उनके अंदर गहरे उतर गई और कविता बनकर बाहर आई-

साल पर साल जीवन के तीस साल चले गए
सचमुच वे तीस साल मेरे तीस बेटे थे,
न्याय की लड़ाई में मारे गए, होम गए

पेशे से वकील केदारनाथ न्याय की लड़ाई में शोषित के साथ खड़े रहे। उनके भीतर बैठे कवि ने कभी हार नहीं मानी। उनकी कविता के बीच खड़ा व्यक्ति कयामत तक भी संघर्ष के लिए तैयार रहा। शोषण के विरुद्ध हुंकार भरती हुई कवि के पंक्तियां-

जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है
तूफानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है
जिसने सोने को खोदा लोहा मोड़ा है
जो रवि के रथ का घोड़ा है......

जो जीवन की आग जला कर आग बना है
फौलादी पंजे फैलाए नाग बना है
जिसने शोषण को तोड़ा शासन मोड़ा है
जो युग के रथ का घोड़ा है
वह जन मारे नहीं मरेगा
नहीं मरेगा

सऩ 1911 में उत्तर प्रदेश के बांदा जनपद के कमासिन गांव की महकती बयार में 1 अप्रेल को केदारनाथ का जन्म एक सम्पन्न परिवार हुआ। उनके परिवार में लक्ष्मी की उपासना होती थी। लेकिन उन्होंने सरस्वती की उपासना को स्वीकारा। 
केदारनाथ अग्रवाल मानवता के सच्चे पुजारी कवि हैं। हृदय की गहराइयों से उतरे उनके भाव प्रकृति को भी मानवीय रूप में व्यक्त करते हैं-

आज नदी बिलकुल उदास थी।
सोई थी अपने पानी में,
उसके दर्पण पर-
बादल का वस्त्र पडा था।
मैंने उसको नहीं जगाया,
दबे पांव घर वापस आया।

प्रगतिवाद के सशक्त कवि, माक्र्सीयन विचारधारा के पक्षधर, मजूदर और कृषक के चितेरे केदारनाथ प्रकृति प्रेमी कवि हैं। उनके प्रकृति चित्रण पर प्रसिद्ध आलोचक डाॅ. बच्चनसिंह लिखते हैं- ‘‘केदार छायावादोत्तर कविता के सुमित्रानंदन पंत हैं........ पंत की प्रकृति मुख्यतः पहाड़ी है और केदार की मैदानी बुंदेलखंडी। पंत की प्रकृति कोमल और एंद्रजालिक है तो केदार की सहज, आत्मीय और किसानी। नीम और पलाश पर पंत ने लिखा है और केदार ने भी। लेकिन दोनों के दृष्टिकोण में अंतर है। एक में रूप-रंग की बहार है तो दूसरे में विकराल वनखंडी दुल्हन बन जाती है। पलाश ढाल लिए रण में खड़े हैं। बरगद, इमली, सेमल के पुरनिया पेड़, धतूरा और बेल पर कोई किसान कवि ही लिख सकता है।’’
केदारनाथ शांति का स्वर भी प्रकृति में सुनते हैं तो क्रांति का बीज भी प्रकृति में ही खोजते हैं-

एक बीते के बराबर
यह हरा ठिगना चना,
बांधे मुरैठा शीश पर
छोटे गुलाबी फूल का
सज कर खड़ा है।

जहां चना मुरैठा बांधे तनकर खड़ा है, वहीं गेहूं क्रांति के लिए सन्नद्ध है-

आर पार चैड़े खेतों में
चारों ओर दिशायें घेरे
लाखों की अगणित संख्या में
ऊंचा गेहूं डटा खड़ा है
ताकत से मुट्ठी बांधे है
नोकीले भाले ताने है

जन शक्ति में आस्था और विश्वास रखने वाला कवि स्वप्नदर्शी जन को कठोर कर्म की भूमि पर उतारता है और उसे सचेत करता है। सर्वहारा की विजय का सपना पाले कवि मजदूर और किसान की ताकत को आंक रहा है-

हाथी-सा बलवान, जहाजी हाथों वाला और हुआ
सूरज-सा इंसान, तरेरी आँखों वाला और हुआ
एक हथौड़े वाला घर में और हुआ
माता रही विचार अंधेरा हरने वाला और हुआ
दादा रहे निहार सवेरा करने वाला और हुआ
एक हथौड़े वाला घर में और हुआ
जनता रही पुकार सलामत लाने वाला और हुआ
सुन ले री सरकार! कयामत ढाने वाला और हुआ
एक हथौड़े वाला घर में और हुआ

केदारनाथ की सहज, सरल कविता कहीं बरसाती नदी की तरह उफनती हुई वेगवान होती है, तो कहीं शांत बहती नदी है। जिसमें तरंगें उठती रहती हैं। वे ग्रामीण संस्कृति के चितेरे कवि हैं। उनके बुंदेलखंड के प्रति प्रेम को व्यक्त करते हुए आलोचक आनंद यादव के शब्द- ‘‘केदार बुंदेलखंड के अद्भुत चितेरे कवि हैं। उनके प्राकृतिक सौंदर्य-बिम्बों का हिन्दी कविता में कोई जोड़ नहीं है। केदार की कविता के सूक्ष्म संवेग इतने टटके और तीक्ष्ण हैं कि मन के भीतर टक कर रहकर जाते हैं।’’
केदारनाथ ने इलाहाबाद से बी.ए. की और यहीं हिन्दू हाॅस्टल में नरेन्द्र शर्मा एव शमशेर बहादुर के साथ रहे। शमशेर से हुई यह मित्रता लेखन में भी बनी रही। कानपुर से एलएल. बी. करने के दौरान केदारनाथ ने मजदूर वर्ग को करीब से देखा। मजदूर वर्ग की पीड़ा को महसूस किया, जो उनके काव्य में प्रगट हुई। मजदूर से एकाकार होकर वे मजदूर को व्यक्त करते हैं-

हमारी जिन्दगी के दिन,
बड़े संघर्ष के दिन हैं।
हमेशा काम करते हैं,
मगर कम दाम मिलते हैं।
प्रतिक्षण हम बुरे शासन--
बुरे शोषण से पिसते हैं!!
अपढ़, अज्ञान, अधिकारों से
वंचित हम कलपते हैं।
सड़क पर खूब चलते
पैर के जूते-से घिसते हैं।।
हमारी जिन्दगी के दिन,
हमारी ग्लानि के दिन हैं!!

केदारनाथ की कविता विविधतामय है। फिर भी साधारणजन उसमें बराबर व्यक्त होता रहा है। उनके भावों के फूल काव्य शाखाओं पर खिले और जनचेतना की खुशबू फैलाई। उनकी कलम से ‘गुलमेंहदी’, ‘जो शिलाएं तोड़ते हैं’, ‘कहे केदार खरी-खरी’, ‘खुली आंखें खुले डैने’, ‘कुहकी कोयल खड़े पेड़ की देह वाल’, ‘मार प्यार की थापें’, ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’, ‘आग का आइना’, ‘पंख और पतवार’, ‘अपूर्वा’, ‘नींद के बादल’, ‘आत्म गंध’, ‘युग गंगा’, ‘बोले बोल अबोल’, ‘पुष्प दीप’, ‘अनहारी हरियाली’ आदि काव्य-कृतियों का सृजन हुआ।
कोई भी व्यक्ति दासता को लम्बे समय तक सहन नहीं करता है। उसके अंदर बूंद-बंूद लावा संचित हो रहा होता है। जब शोषण की हदें पार हो जाती हैं तो बंधनमुक्त होने के लिए लावा फूट पड़ता है। जब कोई अपने अधिकारों के लिए हुंकार भरता है तो बेडि़यां टूट जाती हैं। व्यक्ति के इसी विद्रोह को केदारनाथ अग्रवाल ‘बागी घोड़ा’ कविता में व्यक्त करते हैं-
मैंने बागी घोड़ा देखा
आज सवेरे
चैराहे पर उछल-कूद करता दहलाता
जोरदार हड़कंप मचाता
गुस्से की बिजली चमकाता
लपलप करती देह घुमाता
अगली टांग पटकता पट-पट
पिछली टांग पटकता खट-खट
कड़ी सड़क की कड़ी देह को
कुपित कुचलता
मुरछल जैसी पूंछ घुमाता
फट-फट बड़ी-बड़ी आंखों से आग लगाता
ऊपर-नीचे के जबड़ों के लंबे-पैने दांत निपोरे
व्यंग्य भाव से हंसता ऐसे
अट्टहास करता हो जैसे
पशु होकर भी नहीं चाहता पशुवत जीना
मानववादी मुक्ति चाहता मानव से
चकित चमत्कृत सबको करता
मैंने बागी घोड़ा देखा।

शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने वाले कवि केदारनाथ अग्रवाल के लिए रचनाधर्मी प्रोफेसर ओमराज के शब्द- ‘‘केदारनाथ अग्रवाल का कवि दैन्यपूर्ण निरीह यथास्थिति से उबरने के लिए संघर्ष का पक्षपाती है। मानव अधिकारों की पुष्टि के लिए निजता से निकलकर विद्रोह का हामी है। केदारनाथ अग्रवाल ने शोषण विहीन और समतामूलक समाज निर्माण के लिए कविता को मस्तिष्क के आदर्शवादी एकांगी कुंजों में नहीं पाला, उसे वस्तुपरकता के पालने में झुलाकर यथार्थवाद की मांसल और सुंदर म्यूज बनाया है।’’ 
भौतिक विकास के नाम पर हो रहे व्यक्ति के मौलिक पतन को महसूस कर कवि का संवदनशील हृदय रो उठता है। उनके व्यथित हृदय की अभिव्यक्ति कुछ इस तरह-

एक ओर बनता ही चला जा रहा है
निर्माण का हिंदुस्तान
दूसरी ओर गिरता ही चला जा रहा है
इमान का हिंदुस्तान।

सन् 1947 से पूर्व भारतीय जनता ने जो सपने पाले थे वो स्वतंत्र भारत में चारों तरफ टूटते नजर आए। आदर्शों की कुर्सी पर बैठे लोग जनता के अधिकारों को चबा रहे थे। केदारनाथ जन कवि थे और जनता की इस लाचारी पर उनका आहत मन फूट पड़ता है-
देश की छाती दरकते देखता हूँ!

सत्य के जारज सुतों को,
लंदनी गौरांग प्रभु की,
लीक चलते देखता हूँ!

मैं अहिंसा के निहत्थे हाथियों को,
पीठ पर बम बोझ लादे देखता हूँ।

राजनीतिक धर्मराजों को जुएँ में,
द्रोपदी को हारते मैं देखता हूँ!

भुखमरी को जन्म देते,
वन-महोत्सव को मनाते देखता हूँ!

व्यक्ति की स्वाधीनता पर गाज गिरते देखता हूँ!
देश के अभिमन्युयों को कैद होते देखता हूँ!!

बूचड़ों के न्याय-घर में,
लोकशाही के करोड़ों राम-सीता,
मूक पशुओं की तरह बलिदान होते देखता हूँ!

प्रगतिवाद से पूर्व स्त्री को आदर्श के पैमाने पर नापा जाता रहा। वह एक व्यक्ति के रूप में तो प्रगतिवाद के समय ही आनी शुरू हुई। केदारनाथ स्त्री के सामाजिक यथार्थ को व्यक्त करते हुए कहते हैं-
घर की फुटन में पड़ी औरतें
जिन्दगी काटती हैं
मर्द की मोहब्बत में मिला
काल का काला नमक चाटती हैं

जीती जरूर हैं
जीना नहीं जानती
मात खातीं-
मात देना नहीं जानती
स्त्री का यर्थाथ चित्रित करने वाले केदारनाथ विषमताओं से जूझती स्त्री को भी गढ़ते हैं। उनके विराट हृदय में स्त्री की वही जगह है जो पुरुष की है। उनके औदात्यपूर्ण काव्य में विरांगना की ताकत स्पष्ट दिखलाई पड़ती है-

मैंने उसको जब-जब देखा
लोहा देखा, 
लोहे जैसा- तपते देखा-
गलते देखा, ढलते देखा
मैंने उसको गोली जैसा चलते देखा।

प्रकृति की चटकती कलियों में क्रांति का मकरंद कवि केदारनाथ अग्रवाल को सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, साहित्य अकादेमी सम्मान, हिन्द संस्थान पुरस्कार, तुलसी पुरस्कार, मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार जैसे अनेक पुरस्कार एव सम्मान मिले। पाठक वर्ग द्वारा दिया जाने वाला सम्मान तो उन्हें अमरता की ओर ले जाता है। उनके लेखनीबद्ध विचार जन-जन के कंठहार बने हुए हैं।
22 जून, 2000 को यह जन कवि महाप्रयाण कर गया। मगर अपनी कविताओं के बहाने आज भी हमारे बीच है। उनकी कलमवाणी हमारी गिरा पर हमेशा थिरकती रहेगी। हमारे बीच कवि आज भी गा रहा है-

प्राण- प्राणमय हुआ परेवा, भीतर बैठा, जीव
भोग रहा है
द्रवीभूत प्राकृत आनंद अतीव।
रूप-सिंधु की
लहरें उठती, खुल-खुल जाते अंग, परस-परस,
घुल-मिल जाते हैं
उनके मेरे रंग।

केदारनाथ अग्रवाल के काव्य के औदात्य एव सौंदर्य के लिए आलोचक चंद्रपाल कश्यप के शब्द, उनकी लेखनी को हमारे फैलाते हैं- ‘‘केदार की कविताओं की उद्दामता, उन्मुक्तता और सौंदर्य की अप्रतिमता, जीवन के रंगों की विविधता की छवियां उनके जीवन के बीस साल की अवधि के भीतर रच-बस गयी थीं। उसमें ही इनके जीवन के कृतित्व का सबकुछ निहित है।’’
बुंदेलखण्डी संस्कृति में कवि केदार आजीवन रचे-बसे रहे। अपनी रचनाओं में उसे जीते रहे। बसंती बयार में कोयल की कू कू, महुआ की महक, गेहुं की लहर, अलसी का परस, सरसों का सौंधापन, नदी-रेत-निर्जन-हरे खेत-पोखर तथा उस तमाम का राग छेड़ा, जो बुंदेलखंड में व्याप्त था। हिन्दी के ख्यातनाम कवि बाबा नागार्जुन का मन तो बुंदेलखंड के चप्पे-चप्पे में कवि केदार को ही महसूस करता है-

ओ जन-मन के सजग चितेरे
साथ लगाए हम दोनों ने बांदा के पच्चीसों फेरे...
केन-कूल की काली मिट्टी, वह भी तुम हो!
कालिंजर का चैड़ा सीना, वह भी तुम हो!
ग्रामवधू की दबी हुई कजरारी चितवन, वह भी तुम हो!
कुपित कृषक की टेढ़ी भौंहें, वह भी तुम हो
खड़ी-सुनहली फसलों की छवि-छटा निराली, वह भी तुम हो!

(Desert Times 16 & 17 Nov. 2012)

1 comment:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 17 सितम्बर 2016 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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