क्षैतिजीय ऊंचाइयों की ओर ले जाने वाला व्यक्तित्व

 स्वामी गोपालदास

 @ Dr. Krishna Jakhar डॉ. कृष्णा जाखड़


स्थानीय सामंतों, देशी राजाओं और अंग्रेजी सरकार की शोषण चक्की में पिसती हुई जनता। अंधविश्वासों, रूढि़यों, गरीबी, महामारी, अकाल और धार्मिक उन्मादों से घिरा हुआ समाज। इन्हीं विसंगतियों के बीच चूरू तहसील के भैंरूसर गांव में सन् 1882 में किसान परिवार में एक बच्चे का जन्म हुआ। पिता चैधरी बींजाराम व माता नौजीदेवी के लाड़ प्यार में पलने वाले इस बालक का नाम गोपाल रखा। बचपन की किलकारियों से आंगन गूंज रहा था, जीवन की सामान्य क्रियाएं चल रही थीं कि गोपाल की यात्रा में यकायक मौत का कहर बरपा और पिता का साया सिर से उठ गया। तदोपरांत मां नौजादेवी गोपाल को लेकर गांव भैंरूसर से चूरू आ गई। यहां से शुरू हुई अनेक क्रियाओं से गुजरते हुए यह बालक एक दिन कालजयी पुरुष ‘स्वामी गोपालदास’ के नाम से विख्यात हुआ। जिनके स्मरण मात्र से ही हमारी रक्त-धमनियों में रवानी आ जाती है।
स्वाभिमानी मां ने मेहनत-मजदूरी से बेटे का लालन-पालन किया। गोपालदास जी की मां ने कभी किसी के आगे मजबूरी के हाथ नहीं फैलाए और न ही किसी का उपकार ग्रहण किया। वे दृढ़ निश्चय का पालन करने वाली कर्मठ महिला थीं। उनके उज्ज्वल व्यक्तित्व का गोपालदासजी पर बहुत प्रभाव रहा। मां के इन संस्कारों ने उन्हें निश्चयी बनाए रखा।
मां ने बेटे को जीवन निर्माण के लिए चूरू स्थित छोटे मंदिर के महंत मुकंददास जी को सौंप दिया। महंत ने बालक की कुशाग्र बुद्धि को देखते हुए पं. कन्हैयालाल ढंढ़ की पाठशाला में भर्ती कराया। यहां गोपालदासजी ने विधिवत शिक्षा ग्रहण की और आयुर्वेद चिकित्सा का ज्ञान प्राप्त किया। यह ज्ञान आगे चलकर महामारी के समय काम आया। उस महामारी में गोपालदास जी ने जनता की सेवा की एवं कितने ही लोगों को बीमारी से उबारा।
शिक्षा के साथ-साथ गोपालदास जी अपनी मां से स्वावलंबन का पाठ पढ़ते रहे। मां और गुरु से जीवन की शिक्षा लेते-लेते उनकी रुचि सामाजिक कार्यों में बढ़ने लगी। महज 12-13 वर्ष की उम्र में उन्होंने पेड़ लगाए और उनकी देखभाल करते रहे। जीवनांत तक वे प्रकृति प्रेमी रहे और वृक्षों की शृंखला खड़ी की। वृक्षों के साथ ही गायों की सेवा के लिए भी प्रयासरत रहे। चूरू की बंद होती हुई गोशालाओं को उन्होंने पुनर्जीवन दिया। अकाल में इंसानों की सेवा के साथ गायों की सेवा भी बराबर करते रहे। नगर के उत्तर दिशा में बढते टीलों को रोकने एवं गोचारण के लिए भूमि तैयार करने के लिए वे वर्षों प्रयासरत रहे। वर्षों तक खून-पसीना बहाकर गायों के लिए हजारों बीघा जमीन तैयार की जो आज भी गायों की शरणस्थली है।
विक्रम संवत 1956 के भयंकर अकाल और महामारी में अपने प्राणों की चिंता किए बगैर लोगों की सेवा में लगे रहे। इसी समय अशिक्षा एवं कुरीतियों को मिटाने का संकल्प स्वामीजी ने लिया। बहुआयामी सामाजिक कार्यों के लिए साथियों के साहचर्य में में विक्रम संवत 1864 में ‘सर्वहितकारिणी सभा’ की स्थापना की। इसके माध्यम से वे आजीवन समाज उत्था के लिए प्रयासरत रहे। इसी संस्था के माध्यम से उन्होंने स्त्री शिक्षा के लिए ‘सर्वहितकारिणी पुत्री पाठशाला’ की स्थापना की। स्त्री शिक्षा विरोधी लोगों ने पाठशाला में पत्थर फेंके तथा अन्य समस्याएं भी पैदा कीं, मगर दृढ़ निश्चय के धनी स्वामी जी ने समाज की जड़ता को तोड़ने के लिए स्त्री शिक्षा की अलख जगाए रखी। चूरू के अलावा अन्य कई जगहों पर भी पुत्री पाठशालाएं खुलवाई। इतना ही नहीं रूढि़वादी समाज को झकझोरते हुए स्वामी जी ने अछूत समझे जाने वाले बच्चों के लिए ‘कबीर पाठशाला’ की स्थापना की। गांधीजी के अछूतोद्धार से बहुत पहले स्वामी जी का यह कदम आश्चर्यजनक था। अनिवार्य शिक्षा की मांग भी बीकानेर राज्य में यहीं से शुरू हुई, परिणामास्वरूप अनेक स्कूलें खुली।
सर्वहितकारिणी सभा के माध्यम से गोपालदासजी ने पुस्तकालय, वाचनालय, पुत्री पाठशाला, कबीर पाठशाला, उद्योगवर्द्धिनी सभा, आतुरालय एवं एक महिलाश्रम भी खोला गया। महिलाश्रम में विधवा, परित्यक्ता और निराश्रित महिलाओं के रहने की व्यवस्था की गई। उनको स्वावलंबी बनाने के लिए हस्तकला के साथ-साथ अक्षरज्ञान भी करवाया गया।
गोपालदास जी को सामाजिक गतिविधियों की वजह से रूढि़ग्रस्त लोगों एवं राज्य का विरोध बार-बार झेलना पड़ा। सभा के कार्यालय को भी बार-बार स्थानांतरित करना पड़ता। इस परेशानी से छुटकारा पाने के लिए स्वामीजी ने सभा का निजी भवन बनाने की प्रतिज्ञा ली। तब तक अन्न ग्रहण नहीं किया, जब तक सभा का भवन नहीं बना। चूरू गढ़ के ठीक सामने सात मंजिल वाला भवन बन जाने के बाद ही इस तपस्वी ने अन्न ग्रहण किया। भवन आसानी से नहीं बन गया बल्कि इसके लिए अनेक कष्ट उठाने पड़े और अंत में कर्ज भी लेना पड़ा।
जनसेवा के लिए समर्पित इस महामानव की क्षमता अतुलनीय रही। ऐसा कोई क्षेत्र नहीं रहा, जिसमें इनका योगदान नहीं हो। स्वामीजी ने मोगा मंडी के चिकित्सक डाॅ. मथुरादासजी को चूरू में रखकर हजारों नेत्र विहीनों का इलाज करवाया। नगर के विकास हेतु भी हमेशा प्रयासरत रहे। रेलवे स्टेशन से शहर के अंदर तक सड़क बनवाने और सड़क के दोनों तरफ पेड़ लगाने के लिए स्वामीजी ने खूब पसीना बहाया। कंधों पर घड़ों से पानी ढो-ढोकर वृक्षों को सींचा। आज भी वे वृक्ष जिंदा हैं और स्वामीजी के गाथा बयान कर रहे हैं। 
स्वामीजी के प्रयासों से धर्मस्तूप के नजदीक इंद्रमणि पार्क बना। स्वामीजी नगर में एक सुंदर टाउन हाॅल बनवाना चाहते थे, योजना भी बना ली गई, परंतु वह पूर्ण नहीं हो पाई।
संघर्ष-जडि़त जीवन में स्वामीजी ने आगे कदम बढ़ाने के बाद कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। कंटकाकीर्ण राहों में चलते हुए जो कांटें पैरों में चुभे वहां से खून की बजाए महकते हुए पसीने की बूंदे स्वामीजी का हौंसला बढ़ाती रही। सन् 1932 में बीकानेर षड्यंत्र केस के तहत स्वामीजी को जेल जाना पड़ा और तीन वर्ष तक वे जेल में रहे। गांधीजी और नेहरूजी की आवाज भी उस समय स्वामीजी के पक्ष में उठी। बीकानेर षड््यंत्र की अनुगूंज पूरे भारत में सुनाई दी।
सामाजिक कार्यों के कारण राज्य का विरोध तो सहना ही पड़ा, साथ ही कई बार पेशी भुगताने के लिए चूरू से बीकानेर तक का सफर पैदल ही तय करना पड़ा। इसी प्रकार गर्मी के मौसम में लगभग 60 कोस की यात्रा बीकानेर के लिए तय करनी पड़ती। श्रीडूंगरगढ़ के नजदीक प्यास से एकबार स्वामी जी का गला सूखने लगा और आसपास पानी की बूंद तक नहीं। उसी समय कोई चरवाहा वहां आया और उसने स्वामीजी को पानी पिलाया। उसी दिन स्वामीजी ने निश्चय किया कि इस प्यासी धरती में पानी की व्यवस्था करूंगा। बाद में उन्होंने वहां कुआं बनवाया। इसी भांति कई जगहों पर भी कुएं तथा तालाब बनवाए।
दूर-दूर तक पसरे रेतीले समुद्र में भी पानी की बूंद तलाश लेने वाला किसान जब धरती के सीने में हल की नोंक से सीधी रेखाएं खींचता है, उस समय उसका आत्मविश्वास उसे कहता है- तू जीतेगा, अवश्य जीतेगा। 
उसी धरती पुत्र के आंगन में आकार लेते हुए इस नरकेहरी ने कभी धरती पर अपने सपने टांके थे। समाज को सुंदर बनाने के सपने। अपनी मां के गुणों को ग्रहण कर उस महामानव ने अपना पूरा जीवन देश, समाज के लिए अर्पित कर दिया। आज भी वैसे ही एक महामानव की आवश्यकता फिर से है, मगर स्वामी गोपालदासजी जैसा अविस्मरणीय व्यक्तित्व शायद ही कभी धरती पर जन्म ले। कालजयी पुरुष को शत्-शत् नमन्।

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