चर्चित साहित्यकार मंटो


@ Dr. Krishna Jakhar डॉ. कृष्णा जाखड़


बीसवीं सदी के प्रारमिभक दशकों में विश्व नर्इ करवट ले रहा था, वहीं हिन्दुस्तान में भी तूफानी हलचलें हो रही थीं। गुलामी का दामन उतारने को आमादा भारत नया घरौंदा बनाने की जिद पर अड़ा था। राजनीतिक और आर्थिक बदलावों के साथ-साथ सामाजिक बदलावों के लिए भी उथल-पुथल मची हुर्इ थी। इसी हलचल-भरे समय में साहित्य-जगत भी नया रूप-रंग अंगीकार करने को उतावला हो रहा था।
ऐसे ही झंझावतों वाले दशक में हिन्दुस्तानी साहित्य में एक सितारे का उदय हुआ, जिसने अपनी आभा से साहित्य-जगत में नर्इ सुगबुगाहट पैदा की। उस देदीप्यमान सितारे का नाम 'सआदत हसन मंटो था।
मंटो का जन्म 11 मर्इ, 1912 को पंजाब के लुधियाना जिले के समराला गांव में हुआ। बाद में इनका परिवार अमृतसर में आकर रहने लगा। मंटो की प्रारमिभक शिक्षा यहीं हुर्इ। मंटो अपने माता-पिता की सबसे छोटी सन्तान था। बचपन में कठोर नियन्त्रण एवं पिता के स्नेह से वंचित रहने के कारण मंटो की प्रवृति में विद्रोह तथा आवारगी का असर आने लगा। मां सरदारा बेगम से अतिरिक्त स्नेह मिलने के बावजूद पिता की उपेक्षा इन्हें विचलित करती।
बचपन से ही साहित्य के शौकीन मंटो ने हिन्दुस्तानी साहित्य के साथ-साथ अंग्रेजी तथा रूसी साहित्य भी पढ़ा। उन्होंने कुछ रूसी कहानियों का अनुवाद भी किया, जो बाद में 'रूसी अफसाने नाम से छपा।
साहित्य के प्रति दीवानगी के कारण मंटो मैटि्रक में दो बार फेल हुआ और तीसरी बार तृतीय श्रेणी से पास हुआ। इसके बाद वह अलीगढ़ युनिवर्सिटी में दाखिल हुआ, जो समकालीन साहित्य का गढ़ थीं। परन्तु, जिनको फकीरी भा जाए, वे बन्धन कब स्वीकार करते हैं? हुआ यही। अनुशासन में मंटो का दम घुटने लगा और सेहत गिरने लगी। जब चैकअप कराया गया तो पता चला की टी.बी. का ग्रहण मंटो को लग चुका है। यह बीमारी 18 जनवरी, 1955 तक जोंक की भांति मंटो के शरीर का रक्त चूसती रही।
42 वर्ष, 8 माह, 7 दिन इस दुनिया में सशरीर रहने वाला यह निराला शख्स साहित्य-जगत में आज भी जिन्दा है। मंटो ने स्वयं अपने बारे में लिखा भी- ''यह भी हो सकता है कि सआदत हसन मर जाए और मंटो न मरे। हुआ भी यही। मंटो आज भी जिन्दा है और भविष्य में भी शायद जिन्दा रहे।
अपने लेखन के बूते पर मंटो साहित्य-जगत में हमेशा चर्चित रहा। उनकी 'ठंडा गोश्त, 'ऊपर नीचे और दरम्यान, 'खोल दो, 'नंगी आवाजें, 'हतक, 'बू, 'खुशिया आदि कहानियां चर्चित के साथ-साथ विवादित भी रहीं। यहां तक की, उनको न्यायालय में भी घसीटा गया। मंटो को इससे ख्याति तथा सहानुभूति दोनों मिली। उनका लेखन और करारा होता गया तथा पाठकों को वह भाता गया। मंटो के पात्र और मंटो के पाठक एकाकार होते गये। मंटो अपने बीस से अधिक कहानी संग्रह एवं संस्मरण, उपन्यास, नाटक, निबंध, रेखाचित्र व अनुवाद के साथ साहित्याकाश में छाया रहा।
मंटो समाज के प्रति अपना उत्तरदायित्व समझता था, इसीलिए बार-बार वह उन मसलों पर सोचता-लिखता, जो सहज जिन्दगी में बाधक होते हैं। राजनीति, साम्प्रदायिकता, झूूठ, फरेब, स्वार्थ, भ्रष्टाचार, शोषण पर मंटो पूरे जोर से आघात करता रहा।
मंटो अपने विषय-चुनाव एवं पैनी दृषिट के कारण समकालीन प्रगतिशील लेखकों की जमात से कहीं ज्यादा प्रगतिशील था। मंटो आम आदमी की तकलीफों का सहभागी बनकर, उसके जीवन का सच्चा चित्रण करता रहा। वह उसकी तरफ उंगली उठाता, जो सत्ता के मद में जन का खून चूसता था। चारों तरफ फैले फरेब से परदा उठाकर, समाज का सच पेश करने वाला यह अफसानानिगार अत्यन्त भावप्रवण संवेदनशील व्यकित था। वह मानवीयता की तलाश में दूर तक निकल जाता था।
पाठक जब मंटो की कहानी पढ़ता है तो वही तिलमिलाहट महसूस करता है, जिसने लिखने से पहले और लिखते वक्त मंटो को बैचेन किया। मंटो की कहानी में अनुभव की सच्चार्इ के साथ-साथ जुल्म का एहसास भी मौजूद है। मंटो की कहानी का मर्म पाठक को अंदर तक हिलाकर रख देता है। समाज की गंदगी, घिनौनापन पाठक के सामने साकार हो उठता है, जिसे वह कभी नहीं भूला पाता। मंटो ने अपनी जमीन से जुड़कर लिखा, यथार्थ लिखा, भोगा हुआ लिखा। कल्पनाओं के साहित्याकाश में विचरण करने वह कभी नहीं गया।
उनकी कहानियों के पात्र दबे-कुचले तबके को अभिव्यकित देते हैं। समाज की सड़ी-गली परम्पराओं को चिरता हुआ यह अफसानानिगार लिखते समय राष्ट्र की सीमाओं से ऊपर उठ जाता है। सआदत हसन मंटो की जीवनी लिखने वाले नरेन्द्र मोहन के शब्दों में उनका लेखन कुछ इस तरह व्यक्त हुआ- ''हालांकि उसने जिंदगी को करीब से देखा और उसमें गहरे तक गोता लगाया। वह डूब कर उबरा है और जब उसने धधकते अनुभव से थोड़ा अलग हटकर लिखा तो ऐसे अफसाने ने जन्म लिया जो जीवन-यथार्थ का गहरा अहसास कराते हैं। वह दलित और लांछित पात्रों को उनके 'नरक से बाहर लाया। रोजमर्रा की जिंदगी में से अनुभवों को खींचकर मंटो कुछ इस तरह से अफसानों में लाया कि वे देश-काल की सीमाओं को लांघकर आज भी हमसे आ जुड़ते हैं।
मंटो दो तरह की परिसिथतियों में जीया। गुलाम हिन्दुस्तान में उसने एक स्वतंत्र राष्ट्र का सपना देखा, मगर सन 1947 में टूटता हुआ देश मंटो के हृदय को चीर गया। बंटवारे के खून-खराबे को देखकर उनके व्यथित हृदय ने कर्इ कहानियां लिखी, जिनमें 'टोबा टेकसिंह काफी चर्चित एवं प्रसिद्ध कहानी रही। इस कहानी में दो हिस्सों में बंटता हुआ व्यकित पाठक को झकझोरता है। एक तरफ उसकी मातृ मिटटी है तो दूसरी तरफ विभाजन के बाद मिला देश। विभाजन की त्रासदी और आन्तरिक पीड़ा को इस कहानी में महसूस किया जा सकता है।
मंटो खुद भी इस त्रासदी से गुजरे थे। जनवरी, 1948 में वे पाकिस्तान चले गए और लाहौर के मेयो अस्तपाल में ही अंतिम सांस ली। मंटो के व्यकितत्व को कुछ शब्दों में समेटते हुए प्रसिद्ध कहानीकार कृश्न चंदर ने लिखा- ''उदर्ू में अच्छे-अच्छे अफसानानिगार पैदा हुए, लेकिन मंटो दोबारा पैदा नहीं होगा और कोर्इ दूसरा उसकी जगह लेने नहीं आएगा।
मंटो की कहानियों के विषय में प्रसिद्ध रचनाकार उपेन्द्रनाथ अश्क लिखते हैं- ''मैं मंटो की कहानियां पसंद करता था। 'खुशिया के बाद मैंने मंटो की कर्इ बहुत अच्छी कहानियां पढ़ी थीं। 'नया कानून,'मंत्र, 'शोशो, 'डरपोक, 'मौसम की शरारत, 'हतक और 'मिसेज डीस्कास्टो मुझे बहुत पसंद आर्इ थीं। 
मंटो ने स्वतंत्र लेखन के साथ-साथ रेडियो में भी अपना योगदान दिया। रेडियो में वह ड्रामा लेखक के रूप में नियुक्त हुआ। लोग उन्हें ड्रमा का बादशाह कहते। रेडियो से लगातार उनके ड्रामा प्रसारित होते रहे। बाद में वे मुम्बर्इ फिल्मी दुनिया में चले गए और वहां खूब काम किया। कृश्नचंदर, इस्तमत चुगतार्इ, राजेन्द्र बेदी, उपेन्द्रनाथ अश्क, अहमद नदीम कासमी आदि दोस्तों से घिरा हुआ यह फनकार साहित्य की बुलनिदयों को छूता रहा। 
मंटो के बाहरी जीवन से तो बहुत लोग वाकिफ होंगे मगर उनके घरेलू जीवन से बहुत कम। इस्मत चुगतार्इ से उनकी पारिवारिक दोस्ती थी और यही कारण है कि जितना करीब से इस्मत ने मंटो को देखा उतना औरों ने नहीं। वह बच्चों के सभी काम अपने हाथों से करता। बेहद कोमल हृदय वाले, दूसरों के दुखों से पिंघल जाने वाले मंटो की मृत्यु पर व्यथित होते हुए इस्मत लिखती हैं- ''आज मंटो के मरने के बाद मैं लिख रही हूं। मंटो ही नहीं, अरसा हुआ, मेरे और मंटो के दरम्यान बहुत कुछ मर चुका था। आज सिर्फ एक कसक जिंदा है। यह पता नहीं चलता कि यह किस बात की कसक है? क्या इस बात का अफसोस है कि वह मर चुका है और मैं जिंदा हूं। यह मेरे सीने पर फिर कर्ज जैसा बोझ क्यों है?
निराली प्रतिभा का धनी, अविभाजित हिन्दुस्तान का प्रखर कलमकार, उदर्ू का अलबेला फनकार, तीन बेटियों का पिता और दबे-कुचले तबके की जुबान, मंटो अपनी पत्नी सफिया के साथ संघर्षों के दरिया से गुजरता रहा और असामयिक रूप से 18 जनवरी, 1955 को विदा हो गया। 
मंटो की मृत्यु से कुछ समय पूर्व एक युवा साहित्यकार ने उनसे आटोग्राफ मांगा और वही आटोग्राफ सआदत हसन मंटो की कब्र का कत्बा बन गया-

यहां सआदत हसन मंटो दफ्न है
उसके सीने में फन्ने-अफसानानिगारी के
सारे अस्रारों-रूमूज दफ्न हैं-
वह अब भी मानो मिटटी के नीचे सोच रहा है
कि वह बड़ा अफसानानिगार है या खुदा।

आज से लगभग 100 साल पहले मंटो जैसी विभूति ने जन्म लेकर साहित्याकाश की अनन्त राहों मेें बखूबी विचरण किया। उनको नमन। पुण्य स्मरण।

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